चौथा स्तम्भ : रोज़ा
इससे अभिप्राय यह है कि : रोज़े की नियत से, फज्र निकलने से लेकर सूरज डूबने तक, तमाम रोज़ा तोड़ने वाली चीज़ों जैसे कि खाने पीने और सम्भोग से रूक जाना। यह रोज़ा रमज़ानुल मुबारक के पूरे महीने का रखना है जो साल भर में एक बार आता है।
अल्लाह तआला का फरमान है :
(يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا كُتِبَ عَلَيْكُمُ الصِّيَامُ كَمَا كُتِبَ عَلَى الَّذِينَ مِنْ قَبْلِكُمْ لَعَلَّكُمْ تَتَّقُونَ) (183 البقرة,)
ऐ लोगो जो र्इमान लाऐ हो तुम पर रोज़े रखना अनिवार्य किया गया है जिस प्रकार तुम से पूर्व के लोगों पर अनिवार्य किया गया था, ताकि तुम डरने वाले (परहेज़गार) बन जाओ। (सूरतुल-बक्रा: 183).
और रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया:
(متفق عليه);; من صام رمضان إيمانا واحتسابا غفر له ما تقدم من ذنبه
जिसने र्इमान के साथ और सवाब की नियत रखते हुए रोज़ा रखा उसके पिछले गुनाह क्षमा कर दिए जायेंगे। (बुखारी व मुस्लिम)
रोज़े के फायदे :
इस महीना का रोज़ा रखने से मुसलमान को अनेक र्इमानी, मानसिक और स्वास्थ आदि सम्बन्धी फायदे प्राप्त होते हैं, जिनमें से कुछ यह हैं :
1) रोज़ा पाचन क्रिया और मेदा (आमाशय) को सालों साल लागातार (निरंतर) कार्य करने के कष्ट से आराम पहुंचाता है, अनावश्यक चीज़ों (फजूलात, मल) को पिघला देता है, शरीर को शक्ति प्रदान करता है, तथा वह बहुत से रोगों के लिए भी लाभदायक है।
2) रोज़ा नफस को शार्इस्ता (सभ्य, शिष्ट) बनाता है और भलार्इ, व्यवस्था, आज्ञापालन, धैर्य और इख़्लास (निस्वार्थता) का आदी बनाता है।
3) रोज़ेदार को अपने रोज़ेदार भार्इयों के बीच बराबरी का एहसास होता है, वह उनके साथ रोज़ा रखता है और उनके साथ ही रोज़ा खोलता है, और उसे सर्व-इस्लामी एकता का अनुभव होता है, और उसे भूख का एहसास होता है तो वह अपने भूखे और ज़रूरतमंद भार्इयों की खबरगीरी और देख रेख करता है।
तथा रोज़े के कुछ आदाब हैं जिस से रोज़ेदार का सुसज्जित होना महत्वपूर्ण है ताकि उसका रोज़ा शुद्ध (सहीह) और पूर्ण हो।
तथा कुछ चीज़ें रोज़े को बातिल (व्यर्थ और अमान्य) करने वाली भी हैं, यदि रोज़ेदार उनमें से किसी एक चीज़ को करले तो उसका रोज़ा बातिल होजाता है। तथा इस्लाम ने बीमार, यात्री, दूध पिलाने वाली महिला और इनके अतिरिक्त अन्य लोगों की हालत की रिआयत करते हुए यह वैध किया है कि वह इस महीने में रोज़ा तोड़ दें, और साल के आने वाले समय में उसकी क़ज़ा करें।