इस्लाम धर्म की खूबियाँ तीसरा भाग
इस्लाम धर्म व्यापक शांति का धर्म है जितना कि यह शब्द अपने अन्दर अर्थ रखता है, चाहे उसका संबंध मुसिलम समाज के घरेलू स्तर से हो, जैसाकि आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फरमान है : ''क्या मैं तुम्हें मोमिन के बारे में सूचना न दूँ? जिस से लोग अपने मालों और जानों पर सुरक्षित हों, और मुसलमान वह जिस की ज़ुबान और हाथ से लोग सुरक्षित हों, और मुजाहिद वह है जो अल्लाह की फरमांबरदारी में अपने नफ्स से जिहाद (संघर्ष) करे, और मुहाजिर वह है जो गुनाहों को छोड़ दे। '' (सहीह इब्ने हिब्बान 11203 हदीस नं.:4862)
या उसका संबंध वैशिवक स्तर से हो जो मुसिलम समाज और अन्य समुदायों, विशेषकर वो समाज जो धर्म के साथ खिलवाड़ नहीं करते या उसके प्रकाशन में रूकावट नहीं बनते हैं, के बीच सुरक्षा, सिथरता और अनाक्रमण पर आधारित मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित करने पर आधारित हो, अल्लाह तआला का फरमान है : ''ऐ र्इमान वालों! तुम सबके सब इस्लाम में पूरी तरह दाखि़ल हो जाओ और शैतान के क़दम ब क़दम न चलो, वह तुम्हारा बेशक खुला दुश्मन है। '' (सूरतुल बक़रा :208)
तथा इस्लाम ने शांति को बनाए रखने और उसकी सिथरता को जारी रखने के लिए अपने मानने वालों को आक्रमण का जवाब देने और अन्याया का विरोध करने का आदेश दिया है, अल्लाह तआला का फरमान है : ''पस जो शख़्स तुम पर ज़्यादती करे तो जैसी ज़्यादती उसने तुम पर की है वैसी ही ज़्यादती तुम भी उस पर करो। '' (सूरतुल बक़रा :194)
तथा इस्लाम ने शांति को प्रिय रखने के कारण, अपने मानने वालों को युद्ध की अवस्था में, यदि शत्रु संधि की मांग करे, तो उसे स्वीकार कर लेने और लड़ार्इ बंद कर देने का आदेश दिया है, अल्लाह तआला का फरमान है : ''और अगर ये कुफ्फार सुलह की तरफ मायल हों तो तुम भी उसकी तरफ मायल हो और अल्लाह पर भरोसा रखो (क्योंकि) वह बेषक (सब कुछ) सुनता जानता है। '' (सूरतुल अनफाल :61)
इस्लाम अपनी शांति प्रियता के साथ साथ अपने मानने वालों से यह नहीं चाहता है कि वो शांति के रास्ते में अपमानता उठायें या उनकी मर्यादा क्षीण हो, बलिक उन्हें इस बात का आदेश देता है कि वह अपनी इज़्ज़त और मर्यादा को सुरक्षित रखने के साथ-साथ शांति को बनाये रखें, अल्लाह तआला का फरमान है : ''तो तुम हिम्मत न हारो और (दुश्मनों को) सुलह की दावत न दो, तुम ग़ालिब हो ही और अल्लाह तो तुम्हारे साथ है और हरगिज़ तुम्हारे आमाल को बरबाद न करेगा। '' (सूरत मुहम्मद :35)
इस्लाम धर्म में इस्लाम स्वीकार करने की बाबत किसी पर कोर्इ ज़ोर-ज़बरदस्ती नहीं है, बलिक उसका इस्लाम स्वीकारना उसके दृढ़ विश्वास और सन्तुषिट पर आधारित होना चाहिए। क्योंकि जब्र करना और दबाव बनाना इस्लाम की शिक्षाओं को फैलाने का तरीक़ा नहीं है, अल्लाह तआला का फरमान है : ''धर्म में किसी तरह की जबरदस्ती (दबाव) नहीं क्योंकि हिदायत गुमराही से (अलग) ज़ाहिर हो चुकी है। '' (सूरतुल बक़रा :256)
जब लोगों तक इस्लाम का निमन्त्रण पहुँच जाए और उसे उनके सामने स्पष्ट कर दिया जाए , तो इसके बाद उन्हें उसके स्वीकार करने या न करने की आज़ादी है, क्योंकि इस्लाम का मानना यह है कि मनुष्य उसके निमन्त्रण को क़बूल करने या रद्द कर देने के लिए आज़ाद है। अल्लाह तआला का फरमान है : ''बस जो चाहे माने और जो चाहे न माने। '' (सूरतुल कहफ :29)
क्यों कि र्इमान और हिदायत अल्लाह के हाथ में है, अल्लाह तआला का फरमान है: ''और (ऐ पैग़म्बर) अगर तेरा परवरदिगार चाहता तो जितने लोग ज़मीन पर हैं सबके सब र्इमान ले आते तो क्या तुम लोगों पर ज़बरदस्ती करना चाहते हो ताकि सबके सब मोमिन हो जाएँ। '' (सूरत यूनुस :99)
तथा इस्लाम की अच्छार्इयों में से यह भी है कि उसने अपने विरोधी अह्ले किताब (यानी यहूदी व र्इसार्इ ) को अपने धार्मिक संस्कार को करने की आज़ादी दी है, अबू बक्र रजि़यल्लाहु अन्हु फरमाते हैं : ''...तुम्हारा गुज़र ऐसे लोगों से होगा जिन्हों ने अपने आप को कुटियों में तपस्या के लिए अलग-थलग कर लिया होगा, तो तुम उनको और जिस काम में वे लगे हुए होंगे, उसे छोड़ देना। '' (तबरी 3226)
तथा उनके धर्म ने उनके लिए जिन चीज़ों का खाना पीना वैध ठहराया है, उन्हें उन चीज़ों के खाने पीने की आज़ादी दी गर्इ है, इसलिए उनके सुवरों को नहीं मारा जाए गा, उनके शराबों को नहीं उंडेला जाए गा, और जहाँ तक नागरिक मामलों का संबंध है जैसे शादी-विवाह, तलाक़, वित्तीय लेनदेन, तो उनके लिए उस चीज़ को अपनाने और लागू करने की आज़ादी है जिसका पर वो विश्वास रखते हैं, और इसके लिए कुछ शर्तें और नियम हैं जिसे इस्लाम ने बयान किया है, जिन के उल्लेख करने का यह अवसर नहीं है।
इस्लाम धर्म ने ग़ुलामों (दासों) को आज़ाद कराया है, उनके आज़ाद करने को पुण्य का कार्य घोषित किया है और आज़ाद करने वाले के लिए अज्र व सवाब का वादा किया है, और उसे जन्नत में जाने के कारणों में से क़रार दिया है, नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : ''जिस आदमी ने किसी ग़ुलाम को आज़ाद किया तो अल्लाह तआला उसके हर अंग के बदले उसके एक अंग को जहन्नम से मुक्त कर देगा यहाँ तक कि उसकी शरमगाह के बदले उसकी शरमगाह को आज़ाद कर देगा। '' (सहीह मुसिलम 21147 हदीस नं.:1509)
इस्लाम दासता के सभी तरीक़ों को हराम घोषित करता है, और केवल एक तरीक़ा वैध किया है और वह है युद्ध के अन्दर बंदी बनाने के द्वारा दास बनाना, लेकिन इस शर्त के साथ कि मुसलमानों का खलीफा उन पर दासता का आदेश लगा दे, क्योंकि इस्लाम में बंदियों की कर्इ सिथतियाँ है जिन्हें अल्लाह तआला ने अपने इस कथन के द्वारा बयान किया है : ''तो जब तुम काफिरों से भिड़ो तो (उनकी) गर्दनें मारो यहाँ तक कि जब तुम उन्हें ज़ख़्मों से चूर कर डालो तो उनकी मुष्कें कस लो फिर उसके बाद या तो एहसान रख कर या अर्थदण्ड (मुआवज़ा) लेकर छोड़ दो, यहाँ तक कि लड़ार्इ अपने हथियार रख दे (यानी बंद हो जाए )। (सूरत मुहम्मद :4)
जहाँ एक तरफ इस्लाम ने दासता के रास्ते तंग कर दिये और उसका केवल एक ही रास्ता बाक़ी छोड़ा, वहीं दूसरी तरफ ग़ुलाम आज़ाद करने के रास्तों में विस्तार किया है, इस प्रकार कि ग़ुलाम को आज़ाद करना मुसलमान से होने वाले कुछ गुनाहों का कफफारा बना दिया है, उदाहरण के तौर पर :
ग़लती से किसी को क़त्ल कर देना, अल्लाह तआला का फरमान है : ''और जो आदमी किसी मुसलमान का क़त्ल चूक से कर दे तो उस पर एक मुसलमान ग़ुलाम (स्त्री या पूरूष) आज़ाद करना और मक़तूल के रिश्तेदारों को खून की क़ीमत देना है। लेकिन यह और बात है कि वह माफ कर दे, और अगर वह मक़तूल तुम्हारे दुश्मन क़ौम से हो और मुसलमान हो तो एक मुसलमान ग़ुलाम आज़ाद करना ज़रूरी है, और अगर मक़तूल उस क़ौम का है जिसके और तुम्हारे (मुसलमानों के) बीच सुलह है तो खून की क़ीमत उसके रिश्तेदारों को अदा करना है, और एक मुसलमान ग़ुलाम आज़ाद करना भी है। '' (सूरतुनिनसा :92)
क़सम तोड़ने में, जैसाकि अल्लाह तआला का फरमान है : ''अल्लाह तुम्हारे बेकार क़समों (के खाने) पर तो खैर पकड़ न करेगा मगर पक्की क़सम खाने और उसके खि़ालाफ करने पर तो ज़रुर तुम्हारी पकड़ करेगा उसका कफफारा (जुर्माना) जैसा तुम ख़ुद अपने अह्ल व अयाल को खिलाते हो उसी कि़स्म का औसत दर्जे का दस मोहताजों को खाना खिलाना या उनको कपड़े पहनाना या एक गु़लाम आज़ाद करना है। '' (सूरतुल मार्इदा :89)
जि़हार (जि़हार का मतलब है आदमी का अपनी बीवी से कहना :तू मुझ पर मेरी माँ की पीठ की तरह है। ), अल्लाह तआला का फरमान है : ''जो लोग अपनी पतिनयों से जि़हार करें फिर अपनी कही हुर्इ बात को वापस ले लें तो उनके जि़म्मे आपस में एक दूसरे को हाथ लगाने से पहले एक गर्दन आजाद करना है। '' (सूरतुल मुजादिला :3)
रमज़ान में बीवी से सम्भोग करना, अबू हुरैरा रजि़यल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि एक आदमी ने रमज़ान में अपनी पत्नी से सहवास कर लिया, फिर आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से इसका आदेश पूछा तो आप ने फरमाया :''क्या तुम एक ग़ुलाम आज़ाद करने की ताक़त रखते हो? उसने कहा: नहीं, आप ने पूछा : क्या तुम दो महीना लगातार रोज़ा रख सकते हो? उसने कहा नहीं, आप ने फरमाया : ''तो साठ मिसकीनों को खाना खिलाओ। '' (सहीह मुसिलम 2782 हदीस नं.:1111)
ग़ुलामों पर जि़यादती करने का उसे कफ्फारा बनाया है, आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : ''जिस ने अपने किसी ग़ुलाम को थप्पड़ मारा, या उसकी पिटार्इ की, तो उसका कफ्फारा यह है कि उसे आज़ाद कर दे। '' (सहीह मुसिलम 21278 हदीस नं.:1657)
इस्लाम के दासों की मुकित का कड़ा समर्थक होने का दृढ़ प्रामाण निम्नलिखित तत्व भी हैं :
1. इस्लाम ने मुकातबा का आदेश दिया है, यह ग़ुलाम और उसके स्वामी के बीच एक इत्तिफाक़ होता है जिस में उसे कुछ धन के बदले आज़ाद करने पर समझौता किया जाता है, कुछ फुक़हा ने इसे अगर ग़ुलाम इसकी मांग कर रहा है तो अनिवार्य क़रार दिया है, उनका प्रमाण अल्लाह ताआला का फरमान है : ''और तुम्हारी लौन्डी और ग़ुलामों में से जो मुकातब होने (कुछ रुपए की शर्त पर आज़ादी) की इच्छा करें तो तुम अगर उनमें कुछ सलाहियत देखो तो उनको मुकातब कर दो और अल्लाह के माल से जो उसने तुम्हें अता किया है उनको भी दो। '' (सूरतुन्नूर :33)
2. ग़ुलाम आज़ाद करने को उन संसाधनों में से क़रार दिया है जिनमें ज़कात का माल ख़र्च किया जाता है, और वह ग़ुलामों को ग़ुलामी से और बंदियों को क़ैद से आज़ाद कराना है, क्योंकि अल्लाह तआला का फरमान है : ''ख़ैरात (ज़कात) तो बस फकीरों का हक़ है और मिसकीनों का और उस (ज़कात) के कर्मचारियों का और जिनके दिल परचाये जा रहे हों और ग़ुलाम के आज़ाद करने में और क़र्ज़दारों के लिए और अल्लाह की राह (जिहाद) में और मुसाफिरों के लिए, ये हुकूक़ अल्लाह की तरफ से मुक़र्रर किए हुए हैं और अल्लाह तआला बड़ा जानकार हिकमत वाला है।'' (सूरतुत्तौबा :60)
इस्लाम धर्म अपनी व्यापकता से जीवन के सभी पहलुओं को घेरे हुए है, इसलिए मामलात, युद्ध, विवाह, अर्थ व्यवस्था, राजनीति, और इबादात... के क्षेत्र में ऐसे नियम और कानून प्रस्तुत किए हैं जिस से एक उत्तम आदर्श समाज स्थापित हो सकता है जिसके समान उदाहरण पेश करने से पूरी मानवता भी असमर्थ है, और इन नियमों और क़ानूनों से दूरी के एतिबार से गिरावट आती है, अल्लाह तआला का फरमान है : ''और हमने आप पर किताब (क़ुरआन) नाजि़ल की जिसमें हर चीज़ का (षाफी) बयान है और मुसलमानों के लिए (सरापा) हिदायत और रहमत और खुषख़बरी है।'' (सूरतुन नह्ल :89)
इस्लाम ने मुसलमान के संबंध को उसके रब, उसके समाज और उसके आस-पास के संसार, चाहे वह मानव संसार हो या पर्यावरण संसार, के साथ व्यवसिथत किया है। इस्लाम की शिक्षाओं में कोर्इ ऐसी चीज़ नहीं है जिसे शुद्ध फितरत और स्वस्थ बुद्धि नकारती हो, इस सर्वव्यापकता का प्रमाण इस्लाम का उन व्यवहारों और आंशिक चीज़ों का ध्यान रखना है जिन का संबंध लोगों के जीवन से है, जैसे क़ज़ा-ए-हाजत (शौच) के आदाब और मुसलमान को उस से पहले, उसके बीच और उसके बाद क्या करना चाहिए, अब्दुर्रहमान बिन ज़ैद रजि़यल्लाहु अन्हु कहते हैं : सलमान फारसी से कहा गया : तुम्हारे नबी तुम्हें हर चीज़ सिखलाते हैं, यहाँ तक कि पेशाब-पाखाना के आदाब भी, सलमान ने जवाब दिया : जी हाँ, आप ने हमें पेशाब या पाखाने के लिए किब्ला की ओर मुँह करने, या दाहिने हाथ से इसितंजा करने, या तीन से कम पत्थरों से इसितंजा करने, या गोबर (लीद) या हडडी से इसितंजा करने से रोका है।'' (सहीह मुसिलम 1223 हदीस नं.:262)
इस्लाम धर्म ने महिला के स्थान को ऊँचा किया है और उसे सम्मान प्रदान किया है, और उसका सम्मान करने को संपूर्ण, श्रेष्ठ और विशुद्ध व्यकितत्व की पहचान ठहराया है, आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फरमान है : ''सब से अधिक संपूर्ण र्इमान वाला आदमी वह है जिसके अख्लाक़ सब से अच्छे हों, और तुम में से सर्व श्रेष्ठ आदमी वह है जो अपनी औरतों के लिए सब से अच्छा हो।'' (सहीह इब्ने हिब्बान 9483 हदीस नं.:4176)
इस्लाम ने महिला की मानवता की सुरक्षा की है, अत: वह ग़लती (पाप) का स्रोत नहीं है, न ही वह आदम अलैहिस्सलाम के जन्नत से निकलने का कारण है जैसाकि पिछले धर्मों के गुरू कहते हैं, अल्लाह तआला का फरमान है : ''ऐ लोगो! अपने उस पालनहार से डरो जिस ने तुम को एक जान से पैदा किया और उसी से उसकी बीवी को पैदा किया और दोनों से बहुत से मर्द-औरत फैला दिए और उस अल्लाह से डरो जिस के नाम पर एक-दूसरे से माँगते हो और रिश्ता तोड़ने से (भी बचो)। '' (सूरतुन-निसा :1)
तथा इस्लाम ने महिलाओं के विषय में जो अन्यायिक क़ानून प्रचलित थे, उन्हें निरस्त कर दिया, विशेष कर जो महिला को पुरूष से कमतर समझा जाता था, जिस के परिणाम स्वरूप उसे बहुत सारे मानवाधिकारों से वंचित होना पड़ता था, अल्लाह के पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम फरमाते हैं :''महिलाएं, पुरूषों के समान हैं।'' (सुनन अबू दाऊद 161 हदीस नं.:236)
तथा उसके सतीत्व की सुरक्षा की है और उसके सम्मान की हिफाज़त की है, इसलिए उस पर आरोप लगाने और उसकी सतीत्व को छति पहुंचाने पर आरोप का दण्ड लगाने का आदेश दिया है, अल्लाह तआला ने फरमाया : ''और जो लोग पाक दामन औरतों पर (व्यभिचार का) आरोप लगाएँ फिर (अपने दावे पर) चार गवाह पेष न करें तो उन्हें अस्सी कोड़े मारो और फिर कभी उनकी गवाही क़बूल न करो और (याद रखो कि) ये लोग ख़ुद बदकार हैं।'' (सूरतुन्नूर :4)
तथा वरासत में उसके अधिकार की ज़मानत दी है जिस प्रकार कि मर्दों का हक़ है, जबकि इस से पहले वह वरासत से वंचित थी, अल्लाह ताअल का फरमान है: ''माँ बाप और क़राबतदारों के तर्के में कुछ हिस्सा ख़ास मर्दों का है और उसी तरह माँ बाप और क़राबतदारों के तरके में कुछ हिस्सा ख़ास औरतों का भी है ख़्वाह तर्का कम हो या ज़्यादा (हर शख़्स का) हिस्सा (हमारी तरफ़ से) मुक़र्रर किया हुआ है। '' (सूरतुनिनसा :7)
तथा उसे पूर्ण योग्यता, आर्थिक मामलों जैसे किसी चीज़ का मालिक बनना, क्रय-विक्रय और इसके समान अन्य मामलों में बिना किसी के निरीक्षण या उसके तसर्रुफात को सीमित किए बिना, उसे तसर्रुफ करने की आज़ादी दी है, सिवाय उस चीज़ के जिस में शरीअत का विरोध हो, अल्लाह तआला का फरमान है: ''ऐ र्इमान वालों अपनी पाक कमार्इ में से ख़र्च करो। '' (सूरतुल बक़रा :267)
तथा उसे शिक्षा देने को अनिवार्य किया है, पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : ''इल्म को प्राप्त करना हर मुसलमान पर अनिवार्य है। '' (सुनन इब्ने माजा 181 हदीस नं.:224)
इसी प्रकार उसकी अच्छी तरबियत (प्रशिक्षण) का आदेश दिया है और उसे जन्नत में जाने का कारण बताया है, आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : ''जिसने तीन लड़कियों की किफालत की, फिर उनको प्रशिक्षित किया, उनकी शादियाँ कर दी और उनके साथ अच्छा व्यवहार किया तो उसके लिए जन्नत है। '' (सुनन अबू दाऊद 3338 हदीस नं.: 5147)
इस्लाम धर्म पवित्रता और सफार्इ-सुथरार्इ का धर्म है:
1- हिस्सी पवित्रता जैसे कि शिर्क से पवित्रता, अल्लाह ताअला का फरमान है: ''शिर्क महा पाप है।
रियाकारी से पवित्रता, अल्लाह तआला का फरमान है : '' उन नमाजियों के लिए अफसोस (और वैल नामी जहन्नम की जगह) है। जो अपनी नमाज़ से ग़ाफिल हैं। जो दिखावे का कार्य करते हैं। और प्रयोग में आने वाली चीजे़ं रोकते हैं। '' (सूरतुल माऊन)
खुद पसन्दी, अल्लाह ताआला का फरमान है : ''और लोगों के सामने (गु़रुर से) अपना मुँह न फुलाना और ज़मीन पर अकड़ कर न चलना क्योंकि अल्लाह किसी अकड़ने वाले और इतराने वाले को दोस्त नहीं रखता, और अपनी चाल-ढाल में मियाना रवी अपनाओ और दूसरों से बोलने में अपनी आवाज़ धीमी रखो क्योंकि आवाज़ों में तो सब से बुरी आवाज़ गधों की है। '' (सूरत लुक़मान :18)
गर्व से पवित्रता, आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : ''जिसने गर्व के कारण अपने कपड़े को घसीटा, अल्लाह तआला क़ियामत के दिन उसकी ओर नहीं देखेगा। '' (सहीह बुख़ारी 31340 हदीस नं.:3465)
घमण्ड से पवित्रता, आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : ''जिस आदमी के दिल में एक कण के बराबर भी घमण्ड होगा वह जन्नत में नहीं जाए गा। एक आदमी ने पूछा : ऐ अल्लाह के पैगम्बर! आदमी पसन्द करता है कि उसके कपड़े अच्छे हों, उसके जूते अच्छे हों, आप ने फरमाया :''अल्लाह तआला जमील (खूबसूरत) है और जमाल (खूबसूरती) को पसन्द करता है, घमण्ड हक़ को अस्वीकार करने और लेागों को तुच्छ समझने को कहते हैं। '' (सहीह मुसिलम 193 हदीस नं.:91)
हसद (डाह, र्इष्र्या) से पवित्रता, आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम फरमाते हैं : ''लोगो हसद से बचो, क्यों कि हसद नेकियों को ऐसे ही खा जाती है, जैसे आग लकड़ी को खा जाती है, या आप ने फरमाया : घास-फूस को खा जाती है।
2- मानवी (आंतरिक) तहारत, अल्लाह तआला का फरमान है : ''ऐ र्इमानदारो! जब तुम नमाज़ के लिये खड़े हो तो अपने मुँह और कोहनियों तक हाथ धो लिया करो और अपने सिर का मसह कर लिया करो और टखनों तक अपने पाँवों को धो लिया करो और अगर तुम हालते जनाबत में हो तो तुम तहारत (ग़ुस्ल) कर लो (हाँ) और अगर तुम बीमार हो या सफ़र में हो या तुम में से कोर्इ पाख़ाना करके आएया औरतों से हमबिस्तरी की हो और तुमको पानी न मिल सके तो पाक मिटटी से तयम्मुम कर लो यानी (दोनों हाथ धरती पर मारकर) उससे अपने मुँह और अपने हाथों का मसह कर लो, अल्लाह तो ये चाहता ही नहीं कि तुम पर किसी तरह की तंगी करे बलिक वह यह चाहता है कि तुम्हें पाक व पाकीज़ा कर दे और तुम पर अपनी नेमतें पूरी कर दे ताकि तुम शुक्रगुज़ार बन जाओ। '' (सूरतुल मार्इदा :6)
अबू हुरैरा रजि़यल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : यह आयत क़ुबा वालों के बारे में उतरी : ''उस में ऐसे लोग हैं जो अधिक पवित्रता को पसंद करते हैं और अल्लाह तआला भी पवित्रता हासलि करने वालों को पसंद करता है। '' (सूरतुत्तौबा :108) आप ने फरमाया : वो लोग पानी से इसितंजा करते थे तो उनके बारे में यह आयत उतरी। '' (सुनन तिर्मिज़ी :5280 हदीस नं.:3100)
इस्लाम धर्म आन्तरिक शक्ति वाला धर्म है जो उसे इस बात का सामर्थी बनाता है कि वह दिलों में घर कर जाता है और बुद्धियों पर छा जात है, यही कारण है कि उसे तेज़ी से फैलते हुए और उसे स्वीकार करने वालों की बहुतायत देखने में आती है, जबकि इस मैदान में मुसलमानों की तरफ से ख़र्च किया जाने वाला भौतिक और आध्यातिमक सहायता कमज़ोर है, इसके विपरीत इस्लाम के दुश्मन और द्वेषी उसका विरोध करने, उसे बदनाम करने और लोगों को उस से रोकने के लिए भौतिक और मानव संसाधन का प्रयोग कर रहे हैं, किन्तु इन सब के बावजूद लोग इस्लाम में गुट के गुट प्रवेश कर रहे हैं, यदा कदा ही इस्लाम में प्रवेश करने वाला उस से बाहर निकलता है, इस शक्ति का, बहुत से मुसतशरेक़ीन के इस्लाम में प्रवेश करने का बड़ा प्रभाव रहा है, जिन्हों ने दरअसल इस्लाम का अध्ययन इस लिए किया था कि उसमें कमज़ोर तत्व खोजें, लेकिन इस्लाम की खूबसूरती, उसके सिद्धांतों की सत्यता और उनका शुद्ध फितरत और स्वस्थ बुद्धि के अनुकूल होने का उनके जीवन की धारा को मोड़ने और उनके मुसलमान हो जाने में प्रभावकारी रहा। इस्लाम के दुश्मनों ने भी इस बात की शहादत दी है कि वह सत्य धर्म है, उन्हीं में से (डंतहवसपवनजी) है जो इस्लाम की दुश्मनी में कुख्यात है, किन्तु क़ुरआन की महानता ने उसे सच्चार्इ को कहने पर विवश कर दिया : ''रिसर्च करने वालों (अन्वेषकों) का इस बात पर इत्तिफाक़ है कि महान धार्मिक ग्रन्थों में क़ुरआन एक स्पष्ट श्रेष्ठ पद रखता है, जबकि वह उन तारीखसाज़ (इतिहास रचनाकार) ग्रन्थों में सब से अन्त में उतरने वाला है, लेकिन मनुष्य पर आश्चर्यजनक प्रभाव छोड़ने में वह सब से आगे है, उसने एक नवीन मानव विचार को असितत्व दिया है, और एक उत्Ñष्ट नैतिक पाठशाला की नीव रखी है।
इस्लाम धर्म सामाजिक समतावाद का धर्म है जिसने मुसलमान पर अनिवार्य कर दिया है कि वह अपने मुसलमान भार्इयों की सिथतियों का चाहे वे कहीं भी रहते बसते हों, ध्यान रखे, आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फरमान है : ''मोमिनों का उदाहरण आपस में एक दूसरे से महब्बत करने, एक दूसरे पर दया करने, और एक दूसरे के साथ हमदर्दी और मेहरबानी करने में, शरीर के समान है कि जब उसका कोर्इ अंग बीमार हो जाता है तो सारा शरीर जागने और बुखार के द्वारा उसके साथ होता है। '' (बुख़ारी व मुसिलम )
तथा मुसीबतों और संकटों में उनके साथ खड़ा हो और उनका सहयोग करे, आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फरमान है : ''एक मोमिन दूसरे मोमिन के लिए एक दीवार के समान है जिसका एक हिस्सा दूसरे हिस्सा को शक्ति पहुँचाता है। और आप ने अपने एक हाथ की अंगुलियों को दूसरे हाथ की अंगुलियों में दाखिल किया। '' (सहीह बुख़ारी 1863 हदीस नं.:2314)
तथा आवश्यकता पड़ने पर उनकी सहायता करने का आदेश दिया है : ''और अगर वो धर्म के मामले में तुम से मदद मांगें तो तुम पर उनकी मदद करना लाजि़म व वाजिब है मगर उन लोगों के मुक़ाबले में (नहीं) जिनमें और तुम में बाहम (सुलह का) अह्द व पैमान है और जो कुछ तुम करते हो अल्लाह (सबको) देख रहा है। '' (सूरतुल अनफाल :72)
तथा उन्हें असहाय छोड़ देने से रोका है, अल्लाह के पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया :
''जो अदमी भी किसी मुसलमान की ऐसी जगह में सहायत और मदद करना छोड़ देता है जहाँ उसकी हुर्मत को पामाल किया जाता है और उसकी बे-इज़्ज़ती की जाती है, तो अल्लाह तआला ऐसे आदमी को ऐसी जगह पर असहाय छोड़ देगा जहाँ वह उसकी सहायता और सहयोग को पसंद करता है। तथा जो आदमी किसी मुसलमान की ऐसी जगह में सहायता और सहयोग करता है जहाँ उसकी हुर्मत को पामाल किया जाता है और उसकी बे-इज़्ज़ती की जाती है, तो अल्लाह तआला ऐसे आदमी की ऐसी जगह पर सहायता और मदद करेगा जहाँ वह उसकी सहायता को पसंद करता है। '' (सुनन अबू दाऊद 4271 हदीस नं.:4884)