इस्लाम धर्म की खूबियाँ पहला भाग
चूँकि इस्लाम धर्म समस्त आसमानी धर्मों में सब से अन्त में उतरने वाला धर्म है इसलिए आवश्यक था कि वह ऐसी विशेषताओं और खूबियों पर आधारित हो जिनके द्वारा वह पिछले धर्मों से श्रेष्ठ और उत्तम हो और इन विशेषताओं के कारणवश वह क़ियामतआने तक हर समय और स्थान के लिए योग्य हो, तथा इन खूबियों और विशेषताअें के द्वारा मानवता के लिए दोनों संसार में सौभाग्य को साकार कर सके।
इन्हीं विशेषताओं और अच्छार्इयों में से निम्नलिखित बातें हैं :
- इस्लाम के नुसूस इस तत्व को बयान करने में स्पष्ट हैं कि अल्लाह के निकट धर्म केवल एक है और अल्लाह तआला ने नूह अलैहिस्सलाम से लेकर मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम तक सभी पैग़म्बरों को एक दूसरे का पूरक बनाकर भेजा, आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फरमान है : ''मेरी मिसाल और मुझ से पहले पैग़म्बरों की मिसाल उस आदमी के समान है जिस ने एक घर बनाया और उसे संवारा और संपूर्ण किया, किन्तु उस के एक कोने में एक र्इंट की जगह छोड़ दी। इसलिए लोग उस का तवाफ -परिक्रमा- करने लगे और उस भवन पर आश्चर्य चकित होते और कहते: तुम ने एक र्इट यहाँ क्यों न रख दी कि तेरा भवन संपूर्ण हो जाता? आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया: तो वह र्इंट मैं ही हूँ, और मैं खातमुन्नबीर्इन (अनितम नबी) हूँ।'' (सहीह बुख़ारी 31300 हदीस नं.:3342)
किन्तु अनितम काल में र्इसा अलैहिस्सलाम उतरें गे और धरती को न्याय से भर देंगे जिस प्रकार कि यह अन्याय और अत्याचार से भरी हुर्इ है, परन्तु वह किसी नये धर्म के साथ नहीं आएं गे बलिक उसी इस्लाम धर्म के अनुसार लोगों में फैसला (शासन) करें गे जो मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पर उतरा है, क्योंकि आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फरमान है : ''क़ियामतक़ायम नहीं होगी यहाँ तक कि तुम्हारे बीच इब्ने मरयम न्यायपूर्ण न्यायाधीश बन कर उतरें गे, और सलीब को तोड़ें गे, सुवर को क़त्ल करें गे, जिज़्या को समाप्त करें गे, और माल की बाहुल्यता हो जाए गी यहाँ तक कि कोर्इ उसे स्वीकार नहीं करे गा।'' (सहीह बुख़ारी 2875 हदीस नं.:2344)
इसलिए सभी पैग़म्बरों की दावत अल्लाह सुब्हानहु व तआला की वह्दानियत (एकेश्वरवाद) और किसी भी साझीदार, समकक्ष और समांतर से उसे पवित्र समझने की ओर दावत देने पर एकमत है, तथा अल्लाह और उसके बन्दों के बीच बिना किसी माध्यम के सीधे उसकी उपासना करना, और मानव आत्मा को सभ्य बनाने और उसके सुधार और लोक-परलोक में उसके सौभाग्य की ओर रहनुमार्इ करना, अल्लाह तआला का फरमान है :
''उस ने तुम्हारे लिए धर्म का वही रास्ता निर्धारित किया है जिस को अपनाने का नूह को आदेश दिया था और जिसकी (ऐ मुहम्मद!) हम ने तुम्हारी ओर वह्य भेजी है और जिसका इब्राहीम, मूसा और र्इसा को आदेश दिया था (वह यह) कि धर्म को क़ायम रखना और उस में फूट न डालना।'' (सूरतुश्शूरा :13)
- अल्लाह तआला ने इस्लाम के द्वारा पिछले सभी धर्मों को निरस्त कर दिया, अत: वह सब से अनितम धर्म और सब धर्मों का समापित कर्ता है, अल्लाह तआला इस बात को स्वीकार नहीं करे गा कि उसके सिवाय किसी अन्य धर्म के द्वारा उसकी उपासना की जाए , अल्लाह तआला का फरमान है :
''और हम ने आप की ओर सच्चार्इ से भरी यह किताब उतारी है, जो अपने से पहले किताबों की पुषिट करती है और उनकी मुहाफिज़ है।'' (सूरतुल मायदा :48)
चूँकि इस्लाम सबसे अनितम आसमानी धर्म है, इसलिए अल्लाह तआला ने क़ियामत के दिन तक इसकी सुरक्षा की जि़म्मेदारी उठार्इ, जबकि इस से पूर्व धर्मों का मामला इसके विपरीत था जिनकी सुरक्षा की जि़म्मेदारी अल्लाह तआला ने नहीं उठार्इ थी; क्योंकि वे एक विशिष्ट समय और विशिष्ट समुदाय के लिए अवतरित किए गये थे, अल्लाह तआला का फरमान है :
''नि:सन्देह हम ने ही इस क़ुरआन को उतारा है और हम ही इसकी सुरक्षा करने वाले हैं।'' (सूरतुल हिज्र :9)
इस आयत का तक़ाज़ा यह है कि इस्लाम के पैग़म्बर मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम अनितम पैग़म्बर हों जिनके बाद कोर्इ अन्य नबी व हज़रत पैग़म्बर न भेजा जाए , जैसाकि अल्लाह तआला का फरमान है :
''मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम तुम्हारे मर्दों में से किसी के बाप नहीं हैं, किन्तु आप अल्लाह के सन्देष्टा और खातमुल-अंबिया -अनितम र्इश्दूत- हैं।'' (सूरतुल अहज़ाब:40)
इस का यह अर्थ नहीं है कि पिछले पैग़म्बरों और और किताबों की पुषिट न की जाए और उन पर र्इमान न रखा जाए । बलिक र्इसा अलैहिस्सलाम मूसा अलैहिस्सलाम के धर्म के पूरक हैं और मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम र्इसा अलैहिस्सलाम के धर्म के पूरक हैं, और मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पर नबियों और रसूलों की कड़ी समाप्त हो गर्इ, और मुसलमान को आप से पहले के सभी पैग़म्बरों और किताबों पर र्इमान रखने का आदेश दिया गया है, अत: जो व्यकित उन पर या उन में से किसी एक पर र्इमान न रखे तो उसने कुफ्र किया और इस्लाम धर्म से बाहर निकल गया, अल्लाह तआला का फरमान है :
''जो लोग अल्लाह और उसके रसूलों पर र्इमान नहीं रखते हैं और चाहते हैं कि अल्लाह और उसके रसूलों के बीच अलगाव करें और कहते हैं कि हम कुछ को मानते हैं और कुछ को नहीं मानते और इस के बीच रास्ता बनाना चाहते हैं। यक़ीन करो कि यह सभी लोग असली काफिर हैं।'' (सूरतुनिनसा :150-151)
- इस्लाम धर्म ने अपने से पूर्व शरीअतों (धर्म-शस्त्रों) को सम्पूर्ण और संपन्न कर दिया है, इस से पूर्व की शरीअतें आतिमक सिद्धान्तों पर आधारित थीं जो नफ्स को सम्बोधित करती थीं और उसके सुधार और पवित्रता की आग्रह करती थीं और सांसारिक और आर्थिक मामलों की सुधार करने वाली समस्त चीज़ों पर कोर्इ रहनुमार्इ नकीं करती थीं, इसके विपरीत इस्लाम ने जीवन के समस्त छेत्रों को संगठित और सम्पूर्ण कर दिया है और धर्म व दुनिया के सभी मामलों को समिमलित है, अल्लाह तआला का फरमान है :
''आज मैं ने तुम्हारे लिये तुम्हारे धर्म को पूरा कर दिया, और तुम पर अपनी नेमतें पूरी कर दी और तुम्हारे लिए इस्लाम धर्म को पसन्द कर लिया।'' (सूरतुल मायदा :3)
इसीलिए इस्लाम सर्वश्रेष्ठ और सब से अफज़ल धर्म है, अल्लाह तआला का फरमान है :
''तुम सब से अच्छी उम्मत हो जो लोगों के लिए पैदा की गर्इ है कि तुम नेक कामों का आदेश देते हो और बुरे कामों से रोकते हो, और अल्लाह पर र्इमान रखते हो। अगर अहले किताब र्इमान लाते तो उनके लिए बेहतर होता, उन में र्इमान वाले भी हैं, लेकिन अधिकतर लोग फ़ासिक़ हैं।'' (सूरत आल-इमरान :110)
- इस्लाम धर्म एक विश्व व्यापी धर्म है जो बिना किसी अपवाद के प्रत्येक समय और स्थान में सर्व मानव के लिए है, किसी विशिष्ट जाति, या सम्प्रदाय, या समुदाय या समय काल के लिए नहीं उतरा है। इस्लाम एक ऐसा धर्म है जिस में सभी लोग संयुक्त हैं, किन्तु रंग, या भाषा, या वंश, या छेत्र, या समय, या स्थान के आधार पर नहीं, बलिक एक सुनिशिचत आस्था (अक़ीदा) के आधार पर जो सब को एक साथ मिलाए हुए है। अत: जो भी व्यकित अल्लाह को अपना रब (पालनहार) मानते हुए, इस्लाम को अपना धर्म और मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को अपना पैग़म्बर मानते हुए र्इमान लाया तो वह इस्लाम के झण्डे के नीचे आ गया, चाहे वह किसी भी समय काल या किसी भी स्थान पर हो, अल्लाह तआला का फरमान है :
''हम ने आप को समस्त मानव जाति के लिए शुभ सूचना देने वाला तथा डराने वाला बनाकर भेजा है।'' (सुरत सबा :28)
अल्बत्ता इस से पूर्व जो संदेश्वाहक गुज़रे हैं, वे विशिष्ट रूप से अपने समुदायों की ओर भेजे जाते थे, जैसाकि अल्लाह तआला का फरमान है :
''हम ने नूह को उनकी क़ौम की ओर भेजा।'' (सूरतुल आराफ :59)
तथा अल्लाह तआल ने फरमाया :
''तथा हम ने आद की ओर उनके भार्इ हूद को भेजा, तो उन्हों ने कहा : ऐ मेरी क़ौम अल्लाह की उपासना करो, उसके सिवाय तुम्हारा कोर्इ सच्च माबूद (पूज्य) नहीं।'' (सूरतुल आराफ :60)
तथा अल्लाह तआला ने फरमाया : ''तथा समूद की ओर उनके भार्इ सालेह को भेजा, तो उन्हों ने कहा : ऐ मेरी क़ौम! अल्लाह की उपासना करो, उसके सिवाय तुम्हारा कोर्इ सच्चा माबूद नहीं।'' (सूरतुल आराफ :73)
तथा अल्लाह तआला ने फरमाया :
''और लूत को (याद करो) जब उन्हों ने अपनी क़ौम से कहा।'' (सूरतुल आराफ :80)
तथा अल्लाह तआला ने फरमाया :
''और मदयन की ओर उनके भार्इ शुऐब को (भेजा)। '' (सूरतुल आराफ :85)
तथा अल्लाह तआला ने फरमाया :
''फिर हम ने उनके बाद मूसा को अपनी आयतों के साथ फिरऔन और उसकी क़ौम की ओर भेजा।'' (सूरतुल आराफ :102)
तथा अल्लाह तआला ने फरमाया :
“और उस समय को याद करो- जब र्इसा बिन मरयम ने कहा: ऐ इस्रार्इल के बेटो! मैु तुम्हारी ओर अल्लाह का पैग़म्बर हूँ, अपने से पूर्व तौरात की पुषिट करने वाला हूँ..। ''
इस्लाम के विश्व व्यापी धर्म होने और उसकी दावत के हर समय और स्थान पर समस्त मानव जाति की ओर सम्बोधित होने के कारण मुसलमानों को इस संदेश का प्रसार करने और उसे लोगों के सम्मुख प्रस्तुत करने का आदेश दिया गया है, अल्लाह तआला ने फरमाया :
''और हम ने इसी तरह तुम्हें बीच की (संतुलित) उम्मत बनाया है, ताकि तुम लोगों पर गवाह हो जाओ और हज़रत पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम तुम पर गवाह हो जाएं।'' (सूरतुल बक़्रा :143)
- इस्लाम धर्म के नियम (शास्त्र) और उसकी शिक्षाएं रब्बानी (र्इश्वरीय) और सिथर (अटल) हैं उनमें परिवर्तन और बदलाव का समावेश नहीं है, वे किसी मानव की बनार्इ हुर्इ नहीं हैं जिन में कमी और ग़लती, तथा उस से घिरी हुए प्रभाविक चीज़ों; सभ्यता, वरासत, वातावरण से प्रभावित होने की सम्भावाना रहती है। और इसका हम दैनिक जीवन में मुशाहदा करते हैं, इसलिए हम देखते हैं कि मानव संविधानों और नियमों में सिथरता नहीं पार्इ जाती है और उनमें से जो एक समाज के लिए उपयुक्त हैं वही दूसरे समाज में अनुप्युक्त साबति होते हैं, तथा जो एक समय काल के लिए उप्युक्त हैं वही दूसरे समय काल में अनुप्युक्त होते हैं। उदाहरण के तौर पर पूँजीवाद समाज के नियम और संविधान, साम्यवादी समाज के अनुकूल नहीं होते, और इसी प्रकार इसका विप्रीत क्रम भी है। क्योंकि हर संविधान रचयिता अपनी प्रवृतित्तयों और झुकाव के अनुरूप क़ानून बनाता है, जिनकी असिथरता के अतिरिक्त, उस से बढ़कर और अधिकतर ज्ञान और सभ्यता वाला व्यकित आता है और उसका विरोध करता, या उसमें कमी करता, या उसमे बढ़ोतरी करता है। परन्तु इस्लामी धर्म-शास्त्र जैसाकि हम ने उल्लेख किया कि वह र्इश्वरीय है जिसका रचयिता सर्व सृषिट का सृष्टा और रचयिता है जो अपनी सृषिट के अनुरूप चीज़ों और उनके मामलों को संवारने और स्थापित करने वाली चीज़ों को जानता है, किसी भी मनुष्य को, चाहे उसका पद कितना ही सर्वोच्च क्यों न हो, यह अधिकार नहीं है कि अल्लाह के किसी नियम का विरोध कर सके या उसमें कुछ भी घटा या बढ़ा कर परिवर्तन कर सके, क्योंकि यह सब के लिए अधिकारों की सुरक्षा करता है, अल्लाह तआला का फरमान है : ''क्या यह लोग फिर से जाहिलियत का फैसला चाहते हैं? और यक़ीन रखने वालों के लिए अल्लाह से बेहतर फैसला करने वाला और आदेश करने वाला कौन हो सकता है।'' (सुरतुल मायदा :50)
- इस्लाम धर्म एक विकासशील धर्म है जो उसे हर समय एंव स्थान के लिए उप्युक्त बना देता है, इस्लाम धर्म अक़ीदा व इबादात जैसे र्इमान, नमाज़ और उसकी रकअतों की संख्या और समय, ज़कात और उसकी मात्रा और जिन चीज़ों में ज़कात अनिवार्य है, रोज़ा और उसका समय, हज्ज और उसका तरीक़ा और समय, हुदूद (धर्म-दण्ड)...इत्यादि के विषय में ऐसे सिद्धान्त, सामान्य नियमों, व्यापक और अटल मूल बातों को लेकर आया है जिन में समय या स्थान के बदलाव से कोर्इ बदलाव नहीं आता है, इसलिए जो भी घटनाएं घटती हैं और नयी आवश्यकताएं पेश आती हैं उन्हें क़ुरआन करीम पर पेश किया जाए गा, उसमें जो चीज़ें मिलें गीं उनके अनुसार कार्य किया जाए गा और उसके अतिरिक्त को छोड़ दिया जाए गा, और अगर उसमें न मिले तो पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की सहीह हदीसों में तलाश किया जाए गा, उसमें जो मिलेगा उसके अनुसार कार्य किया जाए गा और उसके अतिरिक्त को छोड़ दिया जाए गा, और अगर उसमें भी न मिले तो हर समय और स्थान पर मौजूद रब्बानी उलमा (धर्म ज्ञानी) उसके विषय में विचार और खोज के लिए इजितहाद करें गे, जिस में सार्वजनिक हित पाया जाता हो और उनके समय की आवश्यकताओं और समाज के मामलों के उप्युक्त हो, और वह इस प्राकर कि क़ुरआन और हदीस की संभावित बातों में गौर करके और नये पेश आने वाले मामलों को कु़रआन और हदीस से बनाए गये क़ानून साज़ी के सामान्य नियमों पर पेश करके, उदाहरण के तौर पर यह नियम (चीज़ों में असल उनका जार्इज़ होना है) तथा (हितों की सुरक्षा) का और (आसानी करने तथा तंगी को समाप्त करने) का नियम, तथा (हानि को मिटाने) का नियम, तथा (फसाद -भ्रष्टाचार- की जड़ को काटने) का नियम, तथा यह नियम कि (आवश्यकता पड़ने पर निषिद्ध चीज़ें वैध हो जाती हैं ) तथा यह नियम कि (आवश्यकता का ऐतबार आवश्यकता की मात्रा भर ही किया जाए गा), तथा यह नियम कि (लाभ उठाने पर हानि को दूर करने को प्राथमिकता प्राप्त है), तथा यह नियम कि (दो हानिकारक चीज़ों में से कम हानिकारक चीज़ को अपनाया जाए गा) तथा यह नियम कि (हानि को हानि के द्वारा नहीं दूर किया जाए गा।) तथा यह नियम कि (सामान्य हानि को रोकने के लिए विशिष्ट हानि को सहन किया जाए गा।)... इनके अतिरिक्त अन्य नियम भी हैं। इजितहाद से अभिप्राय मन की चाहत और इच्छाओं का पालन नहीं है, बलिक उसका मक़सद उस चीज़ तक पहुँचना है जिस से मानव का हित और कल्याण हो और साथ ही साथ क़ुरआन या हदीस से उसका टकराव या विरोध न होता हो। और यह इस कारण है ताकि इस्लाम हर काल के साथ साथ क़दम रखे और हर समाज की आवश्यकतओं के साथ चले।
- इस्लाम धर्म में उसके नियमों और क़ानूनों के आवेदन में कोर्इ भेदभाव और असमानता नहीं है, सब के सब बराबर हैं, धनी या निर्धन, शरीफ या नीच, राजा या प्रजा, काले या गोरे के बीच कोर्इ अन्तर नहीं, इस शरीअत के लागू करने में सभी एक हैं, इसलिए क़ुरैश का ही उदाहरण ले लीजिए जिनके लिए बनू मख्ज़ूम की एक शरीफ महिला का मामला महत्वपूर्ण बन गया, जिसने चोरी की थी, उन्हों ने चाहा कि उस के ऊपर अनिवार्य धार्मिक दण्ड -चोरी के हद- को समाप्त करने के लिए पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के पास किसी को मध्यस्थ बनाएं। उन्हों ने आपस में कहा कि इस विषय में अल्लाह के पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से कौन बात करे गा? उन्हों ने कहा : अल्लाह के पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के चहेते उसामा बिन ज़ैद के अतिरिक्त कौन इस की हिम्मत कर सकता है। चुनांचे उन्हें लेकर अल्लाह के पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के पास आएऔर उसामा बिन ज़ैद ने इस विषय में आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से बात किया। इस पर अल्लाह के पैग़्म्बर का चेहरा बदल गया और आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : ''क्या तुम अल्लाह के एक हद -धार्मिक दण्ड- के विषय में सिफारिश कर रहे हो? ''
फिर आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम भाषण देने के लिए खड़े हुए। आप ने फरमाया : ''ऐ लोगो ! तुम से पहले जो लोग थे वे इस कारण नष्ट कर दिए गए कि जब उन में कोर्इ शरीफ चोरी करता तो उसे छोड़ देते, और जब उन में कोर्इ कमज़ोर चोरी कर लेता तो उस पर दण्ड लागु करत थे। उस हस्ती की सौगन्ध! जिस के हाथ में मेरी जान है, यदि मुहम्मद की बेटी फातिमा भी चोरी कर ले, तो मैं उस का हाथ अवश्य काट दूँगा।'' (सहीह मुसिलम 31315 हदीस नं.:1688)
- इस्लाम धर्म के स्रोत असली और उसके नुसूस (ग्रंथ) कमी व बेशी और परिवर्तन व बदलाव और विरूपण से पवित्र हैं, इस्लामी शरीअत के मूल्य स्रोत यह हैं :
1. क़ुरआन करीम 2. नबी की सुन्नत (हदीस)
1- क़ुरआन करीम जब से मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्ल्म पर उतरा है, उसी समय से लेकर आज हमारे समय तक अपने अक्षरों, आयतों और सूरतों के साथ मौजूद है, उसमें किसी प्रकार की कोर्इ परिवर्तन, विरूपण, कमी और बेशी नहीं हुर्इ है, अल्लाह के पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने अली, मुआविया, उबै बिन कअब और जै़द बिन साबित जैसे बड़े-बड़े सहाबा किराम रजि़यल्लाहु अन्हुम को वह्य के लिखने के लिए नियुक्त कर रखा था, और जब भी कोर्इ आयत उतरती तो इन्हें उस को लिखने का आदेश देते और सूरत में किस स्थान पर लिखी जानी है, उसे भी बता देते थे। इसलिए क़ुरआन को किताबों में सुरक्षित कर दिया गया और लोगों के सीनों में भी सुरक्षित कर दिया गया। मुसलमान अल्लाह की किताब के बहुत सख्त हरीस (लालसी और इच्छुक) रहे हैं, इसलिए वे उस भलार्इ और अच्छार्इ को प्राप्त करने के लिए जिसकी सूचना पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने अपने निम्न कथन के द्वारा दी है, उसके सीखने और सिखाने की ओर जल्दी करते थे, आप का फरमान है : ''तुम में सब से श्रेष्ठ वह है जो क़ुरआन सीखे और सिखाए।'' (सहीह बुख़ारी 41919 हदीस नं.:4739)
क़ुरआन की सेवा करने, उसकी देख-रेख करने और उसकी सुरक्षा करने के मार्ग में वे अपने जान व माल की बाज़ी लगा देते थे, इस प्रकार मुसलमान एक पीढ़ी के बाद दूसरी पीढ़ी को उसे पहुँचाते रहे, क्योंकि उसको याद करना और उसकी तिलावत करना अल्लाह की इबादत है, आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्ल्म का फरमान है : ''जिसने अल्लाह की किताब का एक अक्षर पढ़ा, उसके लिए उसके बदले एक नेकी है, और नेकी को (कम से कम) उसके दस गुना बढ़ा दिया जाता है, मैं नहीं कहता कि ( الم ) अलिफ-लाम्मीम एक अक्षर है बलिक अलिफ एक अक्षर है, मीम एक अक्षर है और लाम एक अक्षर है।'' (सुनन तिर्मिज़ी 5175 हदीस नं.:2910)
2- नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्ल्म की सुन्नत अर्थात हदीस शरीफ जो कि इस्लामी क़ानून साज़ी का दूसरा स्रोत, तथा क़ुरआन को स्पष्ट करने वाली और क़ुरआन करीम के बहुत से अहकाम की व्याख्या करने वाली है, यह भी छेड़छाड़, गढ़ने, और उसमें ऐसी बातें भरने से जो उसमें से नहीं है, सुरक्षित है क्यों कि अल्लाह तआला ने विश्वसनीय और भरोसेमंद आदमियों के द्वारा इस की सुरक्षा की है जिन्हों ने अपने आप को और अपने जीवन को हज़रत पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्ल्म की हदीसों के अध्ययन और उनकी सनदों और मतनों और उनके सहीह या ज़र्इफ होने, उनके रावियों (बयान करने वालों) के हालात और जरह व तादील (भरोसेमंद और विश्वसनीय या अविश्वसनीय होने ) में उनकी श्रेणियों का अध्ययन करने में समर्पित कर दिया था। उन्हों ने नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्ल्म से वर्णित सभी हदीसों को छान डाला और उन्हीं हदीसों को साबित रखा जो प्रमाणित रूप से वर्णित हैं, और वह हमारे पास झूठी हदीसों से खाली और पवित्र होकर पहुँची हैं। जो व्यकित उस तरीक़े की जानकारी चाहता है जिस के द्वारा हदीस की सुरक्षा की गर्इ है वह मुस्तलहुल-हदीस (हदीस के सिद्धांतों का विज्ञान) की किताबों को देखे जो विज्ञान हदीस की सेवा के लिए विशिष्ट है; ताकि उसके लिए यह स्पष्ट हो जाए कि पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की जो हदीसें हमारे पास पहुँची हैं उनमें शक करना असम्भव (नामुमकिन) है, तथा उसे हज़रत पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्ल्म की हदीस की सेवा में की जाने वाली प्रयासों की मात्रा का भी पता चल जाए ।