इसलाम में इबादत की शर्तें
मैं अति मेहरबान और दयालु अल्लाह के नाम से आरम्भ करता हूँ।
إن الحمد لله نحمده ونستعينه ونستغفره، ونعوذ بالله من شرور أنفسنا، وسيئات أعمالنا، من يهده الله فلا مضل له، ومن يضلل فلا هادي له، وبعد
हर प्रकार की हम्द व सना (प्रशंसा और गुणगान) अल्लाह के लिए योग्य है, हम उसी की प्रशंसा करते हैं, उसी से मदद मांगते और उसी से क्षमा याचना करते हैं, तथा हम अपने नफस की बुरार्इ और अपने बुरे कामों से अल्लाह की पनाह में आते हैं, जिसे अल्लाह तआला हिदायत दे दे उसे कोर्इ पथभ्रष्ट (गुमराह) करने वाला नहीं, और जिसे गुमराह कर दे उसे कोर्इ हिदायत देने वाला नहीं। हम्द व सना के बाद :
इसलाम में इबादत की शर्तें
शैख मुहम्मद बिन सालेह बिन उसैमीन रहिमहुल्लाह फरमाते हैं :
सर्वप्रथमः
इबादत अपने सबब (कारण) के अंदर शरीअत के अनुकूल हो। अतः यदि कोई मनुष्य अल्लाह की उपासना किसी ऐसी इबादत के द्वारा करता है जो किसी ऐसे कारण पर आधारित है जो शरीअत से प्रमाणित नहीं है तो वह इबादत अस्वीकृत है, उस पर अल्लाह एवं उसके रसूल का आदेश नहीं है, इसका उदाहरण अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के जन्म दिवस पर जश्न मनाना है, इसी प्रकार जो लोग रजब की 27वीं रात को जश्न मनाते हैं यह दावा करते हुए कि उस रात नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को मेराज कराया गयाए शरीअत के अनुकूल नहीं है और अस्वीकृत है ; क्येंकि
1- ऐतिहासिक रुप से यह बात सिद्ध नहीं है कि पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को 27वीं रात को मेराज कराया गया था। हदीस की किताबें हमारे सामने हैं जिनमें एक भी अक्षर ऐसा नहीं मिलता जो इस बात पर तर्क स्थापित करता हो कि आप को रजब की 27वीं रात को मेराज कराया गया था । और यह बात ज्ञात है कि यह मामला खबर ; (सूचना) के अध्याय से संबंधित है जो शुद्ध सनदों ; ( सूत्रों) से ही सिद्ध हो सकता है।
2- और यदि मान लिया जाये कि वह साबित हैए तो क्या हमें यह अधिकार प्राप्त है कि हम उस दिन में कोई इबादत ईजाद करें या उसको ईद ; (त्योहार और पर्व) बना लें ? कदापि नहीं। यही कारण है कि जब अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम मदीना आए और अंसार को देखा कि उनके यहाँ दो दिन ऐसे हैं जिनमें वे खेल.कूद करते हैं तो आप ने फरमायाः "अल्लाह ने तुम्हें इन दो दिनों से बेहतर दिन प्रदान किये हैं।" फिर आपने उनसे ईदुल.फित्र एवं ईदुल.अज़्हा का उल्लेख किया। यह इस बात पर तर्क है कि अल्लाह के नबी सल्ललाहु अलैहे व सल्लम इस्लामी ईदों ; )त्योहारों( के सिवाय इस्लाम के अंदर ईजाद की जाने वाली किसी भी ईद को नापसंद करते हैं और वे तीन हैं य दो ईदें वार्षिक हैं और वे ईदुल.फित्र एवं ईदुल.अज़्हा हैंए और एक साप्ताहिक ईद है और वह जुमा ; )जुमुआ का दिन( है।
अगर हम मान लें कि रजब की 27वीं रात को अल्लाह के नबी सल्लललाहु अलैहि व सल्लम को मेराज कराया गया था -हालांकि ऐसा असंभव है . तब भी हमारे लिए अल्लाह के पैगंबर की अनुमति के बिना उसमें किसी चीज़ को ईजाद करना संभव नहीं है।
जैसाकि मैं आपको बता चुका हूँ कि बिद्अत का मामला बहुत गंभीर है और हृदय पर उसका प्रभाव बहुत बुरा है; यहाँ तक कि इनसान यद्यपि उस समय अपने दिल में नरमी और विनम्रता महसूस करने लगता है परंतु उसके बाद मामला निश्चित रूप से उसके बिल्कुल उल्टा हो जाता है। क्योंकि गलत चीज़ पर हृदय का हर्ष ; (प्रसन्नता) सदैव बाक़ी नहीं रहता हैए बल्कि उसके बाद दर्द, पश्चाताप, अफसोस और खेद की बारी आती है। हर प्रकार की बिद्अत खतरनाक है ; क्येंकि यह ईश्दूतत्व और पैगंबरी की आलोचना पर आधारित है, इसलिए कि बिद्अत का मतलब यह हुआ कि पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने शरीअत को मुकम्मल तौर से नहीं पहुँचाया है, जबकि अल्लाह तआला कुरआन के अंदर फरमा रहा है किः
﴿ٱلۡيَوۡمَ أَكۡمَلۡتُ لَكُمۡ دِينَكُمۡ وَأَتۡمَمۡتُ عَلَيۡكُمۡ نِعۡمَتِي وَرَضِيتُ لَكُمُ ٱلۡإِسۡلَٰمَ دِينا ٣ ﴾
"आज मैं ने तुम्हारे लिए तुम्हारे धर्म को मुकम्मल कर दिया और तुम पर अपनी नेमतें सम्पूर्ण कर दी और तुम्हारे लिए इस्लाम धर्म को पसंद कर लिया।" )सूरतुल माईदा(
आश्चर्य की बात यह है कि इन बिद्अतों में लिप्त कुछ लोगों को आप देखें गे कि वे बिद्अतों को करने के अति अधिक लालायित होते हैं, हालांकि जो चीज़ सबसे अधिक लाभदायक , सबसे उचित और सबसे अधिक योग्य है उसमें आलसी और सुस्त होते हैं।
इसीलिए हम कहते हैं कि 27वीं रात को इस आधार पर जश्न मनाना कि उसी रात को नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को मेराज कराया गया था, यह बिदअत है ; क्येंकि इसका आधार एक ऐसे सबब (कारण) पर है जो शरीअत से साबित नहीं है।