ईद के अहकाम और उसकी सुन्नतें
हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह के लिए योग्य है।
अल्लाह तआला ने ईद के अंदर कई अहकाम निर्धारित किए हैं, उनमें से कुछ यह हैं :
सर्व प्रथम :
ईद की रात में रमज़ान के अंतिम दिन सूरज के डूबने से इमाम के नमाज़ के लिए आने तक तक्बीर कहना मुस्तहब है, और तक्बीर के शब्द यह हैं : “अल्लाहु अक्बर, अल्लाहु अक्बर, ला इलाहा इल्लल्लाह, अल्लाहु अक्बर, अल्लाहु अक्बर, व लिल्लाहिल हम्द” (अल्लाह बहुत महान है, अल्लाह बहुत महान है, अल्लाह के सिवा कोई वास्तविक पूज्य नहीं, अल्लाह बहुत महान है, अल्लाह बहुत महान है, और हर प्रकार की प्रशंसा केवल अल्लाह के लिए योग्य है)।
या तक्बीर (अल्लाहु अक्बर) तीन बार कहे : “अल्लाहु अक्बर, अल्लाहु अक्बर, अल्लाहु अक्बर, ला इलाहा इल्लल्लाह, अल्लाहु अक्बर, अल्लाहु अक्बर, व लिल्लाहिल हम्द” (अल्लाह बहुत महान है, अल्लाह बहुत महान है, अल्लाह बहुत महान है, अल्लाह के सिवा कोई वास्तविक पूज्य नहीं, अल्लाह बहुत महान है, अल्लाह बहुत महान है, और हर प्रकार की प्रशंसा केवल अल्लाह के लिए योग्य है)।
इनमें से हर एक जाइज़ है।
पुरूषों को चाहिए कि बाज़ारों, मस्जिदों और घरों में इस ज़िक्र (जप) के साथ अपनी आवाज़ को बुलंद करें, जबकि औरतें इन्हें ज़ोर आवाज़ से नहीं पढ़ेंगी।
दूसरा :
ईद के लिए निकलने से पहले ताक संख्या में कुछ खजूरें खाए ; क्योंकि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ईदुल फित्र के दिन नहीं निकलते थे यहाँ तक कि कुछ खजूरें खा लेते, तथा वह उन्हें ताक संख्या में खाए जैसाकि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने किया।
तीसरा :
वह अपना सबसे अच्छा कपड़ा पहने, और यह पुरूषों के लिए है, जहाँ तक औरतों का संबंध है तो वे ईदगाह की तरफ निकलते समय सुंदर वस्त्र नहीं पहनेंगी, क्योंकि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फरमान है : “और उन्हें चाहिए कि सादे कपड़ों में निकलें।” अर्थात साधारण और सामान्य कपड़ों में जो श्रृंगार करने वाले न हों, तथा उसके ऊपर सुगंध लगाकर और श्रृंगार करके निकलना हराम (निषिद्ध) है।
चौथा :
कुछ विद्वानों ने इस बात को मुस्तहब समझा है कि मनुष्य ईद की नमाज़ के लिए स्नान करे ; क्योंकि कुछ सलफ (पूर्वजों) के बारे में ऐसा करना वर्णित है, और ईद के लिए स्नान करना मुसतहब है जिस प्रकार कि जुमुआ (जुमा) की नमाज़ के लिए लोगों के एकत्र होने के कारण स्नान करना धर्म संगत किया गया है, इसलिए अगर मनुष्य स्नान कर लेता है तो यह अच्छा है।
पाँचवां : ईद की नमाज़ः
मुसलमानों का ईद की नमाज़ के धर्म संगत होने पर इत्तिफाक़ (सर्वसहमति) है। उनमें से कुछ का कहना है कि : यह सुन्नत है। और कुछ ने कहा है कि : यह फर्ज़े किफाया है। जबकि कुछ का कहना है कि: यह फर्ज़े एैन है और जिसने इसे छोड़ दिया वह पापी है, और उन्हों ने इस हदीस से दलील पकड़ी है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने कुंवारियों और किशोर लड़कियों तथा जिनकी बाहर निकलने की आदत नहीं होती है उन्हें भी ईदगाह में उपस्थित होने का आदेश दिया है, परंतु मासिक धर्म वाली औरतें नमाज़ की जगह से अलग थलग रहेंगीं, क्योंकि मासिक धर्म वाली औरत के लिए मस्जिद में ठहरना जाइज़ नहीं है, यद्यपि उसके लिए मस्जिद से गुज़रना जाइज़ है लेकिन उसमें वह ठहर नहीं सकती है।
प्रमाणों के आधार पर मेरे निकट जो बात राजेह है वह यह है कि वह फर्ज़े एैन है, और प्रत्येक पुरूष पर अनिवार्य है कि वह ईद की नमाज़ में उपस्थित हो सिवाय उस व्यक्ति के जिसके पास कोई उज़्र (कारण) हो। और इसी को शैखुल इस्लाम इब्ने तैमिय्या रहिमहुल्लाह ने पसंद किया है।
इमाम पहली रक्अत में “सब्बेहिस्मा रब्बिकल आला” और दूसरी रक्अत में “हल अताका हदीसुल गाशिया” पढ़ेगा, या पहली रक्अत में सूरत “क़ाफ” और दूसरी में सूरतुल क़मर पढ़ेगा, और दोनों चीज़ें नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से सहीह हदीस में प्रमाणित हैं।
छठा :
अगर जुमा और ईद एक ही दिन पड़ जाएं, तो ईद की नमाज़ आयोजित की जायेगी और इसी तरह जुमा की नमाज़ भी क़ायम की जायेगी, जैसाकि नोमान बिन बशीर की उस हदीस का प्रत्यक्ष अर्थ दर्शाता है जिसे मुस्लिम ने अपनी सहीह में रिवायत किया है, किंतु जो व्यक्ति इमाम के साथ ईद की नमाज़ में उपस्थित हुआ है वह चाहे तो जुमा की नमाज़ में उपस्थित हो, या चाहे तो ज़ुहर की नमाज़ पढ़े।
सातवाँ :
ईद की नमाज़ के अहकाम में से यह भी है कि बहुत से विद्वानों के निकट अगर मनुष्य इमाम के उपस्थित होने से पहले ईदगाह आता है तो वह बैठ जायेगा और दो रक्अत नमाज़ नहीं पढ़ेगा ; क्योंकि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने ईद की दो रक्अत नमाज़ पढ़ी उसके पहले और उसके बाद कोई और नमाज़ नहीं पढ़ी।
जबकि कुछ विद्वान इस बात की ओर गए हैं कि जब वह ईदगाह आयेगा तो दो रक्अत नमाज़ पढ़कर ही बैठेगा, क्योंकि ईदगाह मस्जिद है, इसका प्रमाण यह है कि मासिक धर्म वाली औरत को उस से रोका गया है, अतः उसके लिए मस्जिद का हुक्म साबित हुआ, इस से पता चला कि वह मस्जिद है। इस आधार पर वह पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के इस फरमान के सामान्य अर्थ के अंतर्गत आता है कि : “जब तुम में से कोई व्यक्ति मस्जिद में प्रवेश करे तो न बैठे यहाँ तक कि दो रक्अत नमाज़ पढ़ ले।” जहाँ तक आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के ईद की नमाज़ से पहले और उसके बाद नमाज़ न पढ़ने का मामला है तो वह इसलिए है कि जब आप हाज़िर हुए तो ईद की नमाज़ शुरू कर दी।
अतः ईदगाह के लिए तहिय्यतुल मस्जिद साबित होती है जिस तरह कि अन्य सभी मस्जिदों के लिए साबित है, और इसलिए भी कि यदि हम हदीस से यह बात निकालें कि ईद की मस्जिद के लिए तहिय्यतुल मस्जिद नहीं है तो हमें यह भी कहना पड़ेगा कि : जुमा की मस्जिद के लिए भी तहिय्या नहीं है ; इसलिए कि अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम जब मस्जिद में उपस्थित होते थे तो खुत्बा देते थे फिर दो रकअत नमाज़ पढ़ते थे, फिर वापस आ जाते और जुमा की सुन्नत अपने घर में पढ़ते थे, तो आप ने यहाँ भी (जुमा की दो रक्अत से) पहले और उसके बाद कोई नमाज़ नहीं पढ़ी।
मेरे निकट राजेह (सही) बात यह है कि ईद की मस्जिद में दो रक्अत तहिय्यतुल मस्जिद के तौर पर पढ़ी जायेगी, इसके बावजूद इस मुद्दे में हम में से कोई दूसरे पर आपत्ति व्यक्त नहीं करेगा ; इसलिए कि यह एक विवादास्पद मुद्दा है, और विवादास्पद मुद्दों (मसाइल) में इनकार और आपत्ति व्यक्त करना उचित नहीं है, सिवाय इसके कि क़ुर्आन या हदीस का नस (मूलशब्द) पूरी तरह से स्पष्ट हो। अतः जिसने तहिय्यतुल मस्जिद पढ़ी हम उस पर इनकार नहीं करेंगे, और जो बैठ गया उस पर भी इनकार नहीं करेंगे।
आठवाँ :
ईदुल फित्र के दिन के अहकाम में से एक यह है कि उसमें ज़कातुल फित्र अनिवार्य है, नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने आदेश दिया है कि उसे ईद की नमाज़ से पहले निकाल दिया जाये, तथा उसे ईद से एक या दो दिन पहले भी निकालना जाइज़ है जिसका प्रमाण सहीह बुखारी में इब्ने उमर रज़ियल्लाहु अन्हुमा की हदीस है : (वे लोग -अर्थात सहाबा रज़ियल्लाहु अन्हुम- ईदुल फित्र से एक या दो दिन पहले निकालते थे।), और यदि वह उसे ईद की नमाज़ के बाद निकालता है तो वह सदक़तुल फित्र से पर्याप्त नहीं होगा ; क्योंकि इब्ने अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हुमा की हदीस है : “जिसने उसे नमाज़ से पहले अदा किया तो वह स्वीकृत ज़कात है, और जिसने उसे नमाज़ के बाद अदा किया तो वह सामान्य सदक़ात व खैरात में से एक सदक़ा है।” अतः इंसान पर हराम (निषिद्ध) है कि वह ज़कातुल फित्र को ईद की नमाज़ से विलंब करे, अगर उसने बिना किसी उज़्र के उसे विलंब कर दिया तो वह ज़कात स्वीकृत नहीं होगी, और यदि वह किसी उज़्रर (बहाना) की वजह से है जैसे कि वह व्यक्ति जो यात्रा में हो और उसके पास ज़कात निकालने के लिए कोई चीज़ न हो, या जिसके लिए ज़कात निकाली जाती है वह मौजूद न हो, या वह व्यक्ति जिसने अपने परिवार पर भरोसा किया कि वे उसे निकालेंगे और उन्हों ने उसके ऊपर भरोसा किया, तो ऐसा व्यक्ति जब भी उसके लिए यह आसान होगा उसे निकालेगा, यद्यपि नमाज़ के बाद क्यों न हो और उसके ऊपर कोई पाप नहीं है ; क्योंकि वह माज़ूर (क्षम्य) है।
नवाँ :
लोगों का एक दूसरे को बधाई देना, लेकिन इसके अंदर बहुत से लोगों से निषिद्ध चीज़ें घटित होती हैं, पुरूष लोग घरों में प्रवेश करते हैं और औरतों से हाथ मिलाते हैं इस हाल में कि वे बेपर्दा और बिना महरम के होती हैं। और यह बुराई के ऊपर बुराई है।
तथा हम कुछ लोगों को पाते हैं कि वे उस आदमी से नफरत करते हैं जो उस औरत से हाथ मिलाने से बाज़ रहता है जो उसके लिए महरम नहीं है, हालांकि वही लोग ज़ालिम (अन्यायी) हैं वह ज़ालिम (अन्यायी) नहीं है, और संबंध विच्छेद उन्हीं लोगों की तरफ से है उसकी ओर से नहीं है, लेकिन उसके ऊपर अनिवार्य है कि वह उनके लिए मामले को स्पष्ट कर दे और उन्हें उस मामले की पुष्टि करने के लिए भरोसेमंद और विश्वस्त विद्वानों से प्रश्न करने की ओर रहनुमाई करे, तथा उन्हें अवगत कराए कि वे मात्र बाप दादा की आदतों का पालन करने के लिए क्रोध न करें ; क्योंकि वह किसी हलाल को हराम नहीं ठहरा सकते और न किसी हराम को हलाल कर सकते हैं, और उनके लिए इस बात को स्पष्ट कर दे कि यदि उन्हों ने ऐसा किया तो उन लोगों के समान हो जायेंगे जिनके वचन को अल्लाह तआला ने वर्णन करते हुए फरमाया :
﴿وَكَذَلِكَ مَآ أَرْسَلْنَا مِن قَبْلِكَ فِى قَرْيَةٍ مِّن نَّذِيرٍ إِلاَّ قَالَ مُتْرَفُوهَآ إِنَّا وَجَدْنَآ ءَابَآءَنَا عَلَىٰ أُمَّةٍ وَإِنَّا عَلَىٰ ءَاثَـٰرِهِم مُّقْتَدُونَ﴾ [سورة الوخرف : 23].
“इसी प्रकार हम ने आप से पहले भी जिस बस्ती में कोई डराने वाला भेजा तो वहाँ के विलासी लोगों ने यही कहा कि हम ने अपने बाप दादा (पूर्वजों) को एक डगर (धर्म व मिल्लत) पर और हम तो उन्हीं के पद चिन्हों की पैररवी करने वाले हैं।” (सूरतुज़ ज़ुखरुफ : 23)
कुछ लोगों ने ईद के दिन क़ब्रिस्तान की तरफ निकलने और क़ब्र वालों को बधाई देने की आदत बना रखी है, हालांकि क़ब्र वालों को बधाई की ज़रूरत नहीं है, क्योंकि उन्हों ने न रोज़ा रखा है और न क़ियामुल्लैल किया है। तथा क़ब्र की ज़ियारत ईद के दिन या जुमा के दिन या किसी अन्य दिन के साथ विशिष्ट नहीं है, और यह बात साबित है नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने रात में क़ब्रिस्तान की ज़ियारत की, जैसाकि सहीह मुस्लिम में आइशा रज़ियल्लाहु अन्हा की हदीस में है। तथा नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : “क़ब्रों की ज़ियारत करो क्योंकि यह तुम्हें आखिरत की याद दिलाती है।”
तथा क़ब्रों की ज़ियारत करना इबादतों और उपासनाओं में से है, और इबादतें धर्मसंगत नहीं होती हैं यहाँ तक कि वे शरीअत के अनुकूल हो जायें। और नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने ईद के दिन को क़ब्रों की ज़ियारत के लिए विशिष्ट नहीं किया है, अतः उसे उसके लिए विशिष्ट करना उचित नहीं है।
दसवाँ :
ईद में की जाने वाली चीज़ों में से पुरूषों का एक दूसरे से गले मिलना है, और इसमें कोई पाप की बात नहीं है।
गयारहवाँ :
ईद की नमाज़ के लिए निकलने वाले के लिए धर्म संगत है कि वह नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का अनुसरण करते हुए एक रास्ते से निकले और दूसरे रास्ते से वापस आये, और यह सुन्नत ईद की नमाज़ के अलावा किसी अन्य नमाज़ में मस्नून नहीं है, न जुमा की नमाज़ में न उसके अलावा में, बल्कि ईद के साथ विशिष्ट है।
“मजमूओ फतावा इब्ने उसैमीन” (16 / 216 – 223) संक्षेप के साथ।