जुमा के दिन की बधाई देने का क्या हुक्म है ?
जुमा के दिन की बधाई देने का क्या हुक्म है ? क्योंकि हमारे यहाँ अब जुमा के दिन यह रिवाज चल गया है कि मोबाइल से संदेश (एस एम एस) भेजे जाते हैं, और लोग एक दूसरे को ''जुमा मुबारक'' या ''जुमा तैयिबा'' कहकर जुमा के दिन की बधाई देते हैं।
हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह के लिए योग्य है। सर्व प्रथम : इसमें कोई संदेह नहीं कि जुमा का दिन मुसलमानों के लिए ईद (त्योहार) का दिन है, जैसाकि हदीस में इब्ने अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हुमा से आया है कि उन्हों ने कहा कि : अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : ''यह ईद का दिन है जिसे अल्लाह ने मुसलमानों के लिए बनाया है, अतः जो व्यक्ति जुमा के लिए आए तो उसे स्नान कर लेना चाहिए, और अगर उसके पास सुगंध (खुश्बू) हो तो उसे लगा ले, तथा तुम मिस्वाक को लाज़िम पकड़ो।'' इसे इब्ने माजा (हदीस संख्या : 1098) ने रिवायत किया है और अल्बानी ने सहीह इब्ने माजा में इसे हसन कहा है। इब्नुल क़ैयिम रहिमहुल्लाह ने जुमा के दिन की विशिष्टताओं का वर्णन करते हुए फरमाया : तेरहवीं : यह एक ईद का दिन है जो सप्ताह में पुनः आता रहता है। 'ज़ादुल मआद' (1/369). इस तरह मुसलमानों के लिए तीन ईदें हो जायेंगी : ईदुल फित्र और ईदुल अज़हा, और ये दोनों हर वर्ष एक बार आती हैं, और जुमा, जो हर सप्ताह में एक बार आता है। दूसरा : जहाँ तक मुसलमानों के एक दूसरे को ईदुल फित्र और ईदुल अज़हा की बधाई देने की बात है : तो यह वैध है और सहाबा रज़ियल्लाहु अन्हुम से वर्णित है। इसका उल्लेख प्रश्न संख्या (49021) और (36442) के उत्तर में हो चुका है। रही बात जुमा के दिन की बधाई देने की : तो हमारे लिए यही प्रतीत होता है कि ऐसा करना धर्म संगत नहीं है, क्योंकि जुमा के दिन का ईद होना सहाबा रज़ियल्लाहु अन्हुम को भी पता था, और वे लोग उसकी फज़ीलत (प्रतिष्ठा) को हमसे अधिक जानते थे, और वे उसका सम्मान करने और उसके हक़ को निभाने के सबसे बढ़कर लालायित थे। और उनसे यह बात वर्णित नहीं है कि वे एक दूसरे को जुमा के दिन की बधाई देते थे। जबकि सारी भलाई उनका अनुसरण करने में है, अल्लाह उनसे प्रसन्न हो। तथा शैख सालेह बिन फौज़ान अल-फौज़ान हफिज़हुल्लाह से प्रश्न किया गया : हर जुमा के दिन मोबाइल से एस. एम. एस. भेजने का क्या हुक्म है, जिसके अंत में ''जुमा मुबारक हो'' का वाक्य लिखा होता है? तो उन्हों ने उत्तर दिया : ''पूर्वज (सलफ) एक दूसरे को जुमा के दिन की बधाई नहीं देते थे, अतः हम ऐसी चीज़ पैदा नहीं करेंगे जिसे उन्हों ने नहीं किया है।'' 'मजल्लतुद् दावतिल इस्लामियया' के प्रश्नों के उत्तर से अंत हुआ। https://www.alfawzan.ws/AlFawzan/MyNews/tabid/87/Default.aspx?more=454&new_id=94 इसी तरह का शैख सुलैमान अल-माजिद हफिज़हुल्लाह ने भी फत्वा दिया है, वह कहते हैं : ''हम जुमा के दिन की बधाई देने को धर्म संगत नहीं समझते हैं, जैसे कि कुछ लोगों का ''जुमा मुबारक'' इत्यादि कहना ; क्योंकि यह दुआओं और अज़कार के अध्याय के अंतर्गत आता है, जिनके बारे में शरीअत में वर्णित चीज़ की सीमा पर रूक जाया जायेगा, और यह एक विशुद्ध पूजा का क्षेत्र है। यदि यह अच्छा काम होता तो नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम और आपके सहाबा रज़ियल्लाहु अन्हुम इसकी ओर पहल कर चुके होते। यदि कोई व्यक्ति इसे वैध ठहरा दे तो उससे पाँचों नमाज़ों, और उनके अलावा अन्य इबादतों से फारिग होने पर बधाई देने और दुआ करने की वैधता लाज़िम आयेगी। जबकि सलफ ने इन जगहों पर दुआ नहीं किया है।'' शैख की साइट से अंत हुआ। https://www.salmajed.com/node/2601 यदि मुसलमान अपने भाई के लिए जुमा के दिन, उसके दिल की सांत्वना, उस पर खुशी दाखिल करने और दुआ के क़बूल होने की घड़ी को तलाश करते हुए दुआ करे, तो इसमें कोई आपत्ति की बात नहीं है।