“सिखों” का अक़ीदा, उनका दृष्टिकोण और मुसलमानों के प्रति उनका रवैया
हर प्रकार की प्रशंसा और स्तुति केवल अल्लाह के लिए योग्य है।
सबसे पहले :
परिभाषा :
सिख : भारतीयों का एक धार्मिक समूह है जो पंद्रहवीं सदी ईसवी के अंत और सोलहवीं सदी ईसवी की शुरूआत में प्रकट हुआ, जिन्हों ने एक नए धर्म का बुलावा दिया, जिसके बारे में उनका भ्रम यह था कि उसमें इस्लाम और हिंदू दोनों धर्में की कुछ चीज़ें पाई जाती हैं, उनका नारा यह था कि : “न हिंदू हैं न मुसलमान”.
उन्हों ने अपने इतिहास के दौरान मुसलमानों के साथ हिंसक रूप से दुश्मनी का प्रदर्शन किया, जिस तरह कि खुद की एक मातृभूमि प्राप्त करने के उद्देश्य से हिंदुओ से भी दुश्मनी की, और वह इस तरह कि ब्रिटिश के साथ उनके भारत पर उपनिवेश के दौरान मज़बूत निष्ठा (वफादारी) बनाये रखा।
“सिख” एक संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ होता है : शिष्य या अनुयायी।
दूसरा :
संस्थापन और प्रमुख व्यक्तित्व
सिख धर्म के संस्थापक : “नानक” हैं जिन्हें “गुरू” कहा जाता था, जिसका अर्थ “शिक्षक” होता है। उनका जन्म 1469 ई. में लाहौर से 40 मील की दूरी पर “तलवंडी” नामक गाँव में हुआ था। (यह स्थान अब पाकिस्तान में है और 'ननकाना साहब' के नाम से जाना जाता है) उनका पालन पोषण एक पारंपरिक हिंदू के रूप में हुआ।
- जब वह जवान हुए तो 'सुलतानपुर' में एक अफगानी नेता के लिए मुनीम के रूप में काम किया और वहाँ पर एक मुसलमान परिवार से उनका परिचय हुआ जो इस नेता की सेवा कर रहा था।
- उन्हों ने धर्म शास्त्रों का अध्ययन किया, देश में घूमे फिरे, तथा मक्का और मदीना की यात्रा की, और दुनिया के कुछ हिस्सों का दौरा किया जो उनके निकट परिचित थे। तथा हिंदी, संस्कृत और फारसी भाषा की शिक्षा प्राप्त की।
- उन्हों ने दावा किया कि उन्हों ने परमेश्वर को देखा है, जिसने उन्हें लोगों को आमंत्रित करने का आदेश दिया है, फिर वह एक नाले में नहाने के दौरान गायब हो गए और तीन दिन गायब रहने के बाद यह घोषणा करते हुए प्रकट हुए कि : “न हिंदू हैं न मुसलमान”.
- वह इस्लाम से प्यार का दावा करते थे, जबकि दूसरी तरफ अपने हिंदू धर्म की जड़ों और उस पर परवरिश की ओर आकर्षित थे, जिसने उन्हें दोनों धर्मों के बीच निकटता लाने के लिए कार्य करने पर तैयार किया, चुनाँचि उन्हों ने भारतीय उपमहाद्वीप में एक नये धर्म की स्थापना की, तथा कुछ अध्ययन कर्ताओं का विचार यह है कि वह असल में एक मुसलमान थे फिर उन्हों ने अपने इस धर्म को ईजाद किया।
- वर्तमान पाकिस्तान के “करतार पुर” में सिखों का पहला गुरूद्वारा स्थापित किया, और 1539 ई. में अपनी मृत्यु से पहले अपने एक अनुयायी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। तथा इस समय भारतीय पंजाब के डेरा “बाबा नानक” नगर में उन्हें दफन किया गया था, और अभी तक उनका एक पोशाक सुरक्षित है जिस पर सूरतुल फातिहा और क़ुर्आन करीम की कुछ छोटी सूरतें लिखी हुई हैं।
शैख मुहम्मद बिन इब्राहीम अल-हमद – अल्लाह उन्हें तौफीक़ प्रदान करे - ने फरमाया :
कुछ इतिहासकारों ने लिखा है कि वह मुसलमान थे, इसी कारण वे लोग उन के लिए रहमत (दया) की दुआ करते थे ! .
हालाँकि यह बहुत दूर की बात है ; क्योंकि यदि वह मुसलमान होते : तो इस्लाम धर्म की ओर आमंत्रित करते, एक नये धर्म की ईजाद न करते।
शायद उन लोगों के उनके लिए इस्लाम का दावा करने का कारण यह है कि : उनकी किताब में कुछ ऐसी इबारतें (वाक्यांश) उल्लिखित हैं जिनमें इस्लामी भावना पाई जाती है, जैसेकि उनका कथन है : “परमेश्वर का शब्द पढ़ें जिसके साथ मुहम्मद का नाम होता है, उनके पास जो कुछ भी था उसे अल्लाह के रास्ते में भेंट कर दिया।”
तथा उनकी पुस्तक में : अल-क़ुरआन, रसूल (पैगंबर), अल-यौमुल आखर (परलोक का दिन), रहमान, रहीम इत्यादि इस्लामी शब्दों का वर्णन है।
लेकिन यह उनके लिए मुसलमान होने का हुक्म लगाने के लिए काफी नहीं है, इसीलिए सिख कहते थे : नानक न हिुंदू थे न मुसलमान, बल्कि वह मुसलमान गरीबों और हिन्दू गरीबों से प्यार करते थे।” अंत हुआ।
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- उनके बाद दस शिक्षक उत्तराधिकारी उनके उत्तराधिकारी बने, उनमें सबसे अंतिम “गोबिंद सिंघ” (1675 - 1709 ई.) थे, जिसने शिक्षकों की श्रृंखला के समाप्त होने की घोषणा की।
शैख मुहम्मद बिन इब्राहीम – अल्लाह उन्हें तौफीक़ प्रदान करे - ने फरमाया :
यह उत्तराधिकारी सिखों के उत्तराधिकारियों में सबसे बहादुर और जंग के मामलों को सबसे अधिक जानने वाला था, यही है जिसने सिखों को एकजुट करने के लिए अपनी पूरी चिंता व्यय कर दी, और उनके अंदर मुसलमानों के खिलाफ दुश्मनी की भावना पैदा की, और जो भी सिख धर्म में दाखिल होना चाहे उन सब के लिए दरवाजा खोल दिया और वर्गों (जातियों) के बीच कोई अंतर नहीं किया, चुनाँचि लोग भीड़ के भीड़ उसके धर्म में दाखिल हुए।
फिर उसने अपने समुदाय के लोगों के लिए एक विशिष्ट वर्दी निर्धारित कर दी जिसके द्वारा वे दूसरे लोगों से अनूठे रहते हैं, और हर सिख के लिए अनिवार्य कर दिया कि वह अपने पास लोहे का एक टुकड़ा रखे ; यह उसकी बहादुरी और दृढ़ता के प्रमाण के तौर पर है, तथा वह अपनी चमड़ी के बालों में से कुछ भी न मुँडाए, और उसके पास एक कंघी होनी चाहिए, तथा उसने गाय के सम्मान को अनिवार्य कर दिया, और खाने पीने की चीज़ों से प्रतिबंध को हटा दिया यहाँ तक कि शराब को वैध ठहरा दिया।
तथा उसने अपने नाम के साथ “सिंघ” अर्थात् शेर का लक़ब (उपाधि) लगाया, फिर यह शब्द प्रत्येक सिख के लिए बोला जाने लगा। चुनाँचे उनमें से जो भी है उसके नाम के साथ सिंघ लगा हुआ है। तथा उसी ने सिखों को “खालसा” की उपाधि प्रदान की, जिसका अर्थ होता है : आज़ाद लोग। तथा उसी ने सिख समुदाय को हिंदू समुदाय से पूरी तरह अलग कर दिया, और उसके ज़माने में सिख मुसलमानों के सबसे कट्टर दुश्मन बन गए, और कोई भी अवसर मिलने पर उनसे बदला लेने के लिए प्रयास करने लगे।
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- इसके बाद उनके नेता महाराजा के नाम से जाने जाने लगे, और उन्हीं में से एक महाराजा रंजीत सिंघ हैं जिनका 1839 ई. में निधन हुआ।
तीसरा : विचारधाराएं और मान्यताएं
1- वे एक खालिक़ (सिरजनहार) में विश्वास रखने का आमंत्रण देते हैं, और मूर्तियों की पूजा को निषिद्ध ठहराते हैं, तथा लोगों के बीच समानता का आह्वान करते हैं।
2- वे सदैव जीवित रहने वाले, कभी न मरने वाले सृष्टा की एकता पर ज़ोर देते हैं, जिसका कोई आकार नहीं (वह निरंकार है) तथा वह मानव की समझ से परे है, इसी तरह वे ईश्वर के लिए कई नामों का उपयोग करते हैं जिनमें से : “वाह गुरू” और “जाप” है, और उनमें नानक के निकट सबसे श्रेष्ठ “सत करतार” है, और उसके अलावा बाक़ी सब कुछ “माया” है।
3- छवियों में परमेश्वर को चित्रित करने से रोकते हैं, तथा सूर्य, नदियों और पेड़ों की पूजा को नहीं मानते हैं जिनकी हिंदू लोग पूजा करते हैं, इसी तरह गंगा नदी की तीर्थ यात्रा करने और पवित्र होने की परवाह नहीं करते हैं। वे धीरे-धीरे हिंदू समाज से अलग हो चुके हैं, यहाँ तक कि उनकी एक उतकृष्ट धार्मिक व्यक्तित्व हो गई है।
4- नानक ने शराब और सूअर का मांस खाने की अनुमति दी है और हिंदुओं का साथ रखते हुए गाय के मांस को निषिद्ध ठहराया है।
5- सिख लोग आत्माओं के आवागवन (एक शरीर से निकलकर दूसरे शरीर का रूप धारण करने) के सिद्धांत को मानते हैं, चुनाँचे वे विश्वास रखते हैं कि शिक्षकों में से हर एक की आत्मा उसके बाद आने वाले शिक्षक में स्थानांतरित हो जाती है।
6- किसी हद तक गाय को पवित्र मानते हैं।
7- हिंदुओं के समान अपने मृतकों को जलाते है।
8- उनके यहाँ धर्म के सिद्धांत पाँच हैं, और वे पाँच “क” हैं, क्योंकि वे गुरूमिकी भाषा में अक्षर “क” से शुरू होते हैं। और वे निम्नलिखित हैं :
क- केश : इसका मतलब यह है कि वह माँ की गोद से क़ब्र में जाने तक बाल को बिना काटे हुए छोड़े रखे, ताकि अपने बीच अजनबियों को जासूसी करने के लिए प्रवेश करने से रोक सके।
ख- कड़ा : इसका मतलब यह है कि आदमी विनम्रता और दरवीशों का अनुकरण करते हुए अपनी कलाई में लोहे का छल्ला (कड़ा) पहने।
ग- कच्छा : इसका मतलब यह है कि आदमी पैजामे के नीचे पवित्रता व शुद्धता के प्रतीक के तौर पर कच्छा पहने।
घ- कंघा : इसका मतलब यह है कि आदमी बालों को कंघा करने, उसे संवारने और ठीक रखने के लिए अपने सिर के बाल में एक छोटी कंघी रखे।
ङ- कृपाण : इसका मतलब यह है कि सिख हमेशा अपनी पेटी में एक खंजर या कटार बांध कर रखे ताकि इससे उसे शक्ति और तैयारी प्राप्त हो ; और यदि आवश्यक हो तो उसके द्वारा अपनी रक्षा करे।
ये बातें “नानक” की नहीं हैं, बल्कि दसवें गुरू “गोबिंद सिंघ” की हैं -जैसा कि गुज़र चुका है-, और उसी ने अपने अनुयायियों पर धूम्रपान को निषेद्ध ठहराया है, और इन बातों से उद्देश्य अन्य सभी लोगों से उत्कृष्ट होना है।
9- शिक्षक के लिए - जिसे उनके यहाँ गुरू कहा जाता है - एक धार्मिक पद है जो परमेश्वर की श्रेणी के बाद आता है, क्योंकि वही उनकी दृष्टि में सच्चाई और न्याय का मार्गदर्शन करता है, इसी तरह वे ईश्वर की पूजा उन धार्मिक गीतों के गायन द्वारा करते हैं जिन्हें शिक्षकों (गुरूओं) ने लिखा है।
10- उनका मानना है कि ईश्वर के नामों “नामा” को जपना आदमी को गुनाह से पवित्र कर देता है, और दिलों में बुराई के स्रोत को समाप्त कर देता है, तथा “कीर्ता” के गीतों को गाना और शिक्षक “गुरू” के मार्गदर्शन के अंर्तगत ध्यान करना ईश्वर से मिला देने का कारण है।
11- सिखों के त्योहार वही हैं जो उत्तर भारत में हिंदुओं के त्योहार हैं, तथा पहले और दूसरे गुरू का जन्म दिन, और पाँचवे और नवें गुरू के शहीद होने की बरसी मनाना इनके अतिरिक्त है।
चौथा :
सिख, मुगल, अंग्रेज़, हिंदु और मुसलमान
1- सिखों को मुगलों के उत्पीड़न का सामना करना पड़ा जिन्हों ने उनके दो शिक्षकों “गुरूओं” को फाँसी दे दी, उनके ऊपर मुगलों में सबसे सख्त नादिर शाह (1738 - 1839 ई.) था, जिसने उनके ऊपर हमला किया और उन्हें पहाड़ों और घाटियों की तरफ पलायन करने पर मजबूर कर दिया।
2- मुगलों के कमज़ोर हो जाने के बाद, 1761 ई. के बाद वे पंजाब के शासक बन गए ; चुनाँचि 1799 ई. में वे लाहौर पर काबिज़ हो गए, और 1819 ई. में उनके राज्य का विस्तार पठानों के देश तक हो गया, तथा महाराजा रंजीत सिंघ - मृत्यु 1839 ई. - के शासन काल में अफगानियों पर विजय पाकर खैबर के दर्रे तक पहुँच गए।
3- सिख, अंग्रेज़ों के हाथों में एक उपकरण बन गए जिनके द्वारा वे 1857 ई. की बगावत के आंदोलनों को दबाते थे।
4- उन्हें अग्रेज़ों से बहुत से विशेषाधिकार प्राप्त हुए, जिनमें उन्हें कृषि भूमि का दिया जाना, और नहरों के द्वारा उनमें पानी पहुँचाना है, जिसके कारण उन्हें भौतिक वैभव प्राप्त हो गया जिसकी वजह से वे उस क्षेत्र के सभी निवासियों से अनूठे हैं।
5- प्रथम विश्व युद्ध में वे ब्रिटिश भारतीय सेना में 20 प्रतिशत से अधिक थे।
6- भारत सरकार ने सिखों के उन विशेषाधिकारों को समाप्त कर दिया जो उन्हें अग्रेज़ों से प्राप्त हुए थे, जिसने उन्हें पंजाब प्रांत को अपना अलग राष्ट्र बनाने की मांग करने पर प्रोत्साहित कर दिया।
7- हिंदुओं और सिखों के बीच निरंतर टकराव के बाद : भारत की प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने जून 1984 ई. में अमरितसर में स्वर्ण मंदिर पर चढ़ाई करने का आदेश दे दिया जहाँ दोनों पक्षों में झड़प हुई, जिसमें लगभग 1500 सिख और 500 भारतीय सेना के आदमी मारे गए।
8- 31 अक्टूबर, 1984 ई. को सिखों ने स्वर्ण मंदिर पर चढ़ाई करने की कार्रवाई का बदला लेने के लिए इस प्रधान मंत्री की हत्या कर दी, हत्या के बाद दोनों पक्षों के बीच टकराव हुआ जिसकी वजह से कई हज़ार सिख मारे गए जिसका कुछ लोगों ने लगभग पाँच हज़ार अनुमान लगाया है।
9- सिख अपने शासन के दौरान दुर्व्यवहार, अत्याचार, अन्याय, उत्पीड़न और क्रूरता से ख्यात थे, जैसे कि धार्मिक कर्तव्यों की अदायगी करने, अज़ान देने और उन गांवों में मस्जिद निर्माण करने से रोकना जिनमें उनकी बहुमत होती थी। इसके अतिरिक्त उन दोनों के बीच सशस्त्र टकराव होते थे जिनमें बहुत से निर्दोष (बेगुनाह) मुसलमान मारे जाते थे, उनके हाथों मारे जाने वालों में से एक विद्वान नेता शाह मुहम्मद इस्माइल देहलवी हैं, जो “इस्माइल शहीद” से परिचित थे, यह 1246 हिजरी (1831 ई.) में “बालाकोट” की लड़ाई में घटित हुआ। अल्लाह उन पर दया करे।
पांचवाँ :
फैलाव और प्रभाव के स्थान
क- उनका एक पवित्र शहर है जिसमें वे अपनी महत्वपूर्ण सभायें आयोजित करते हैं, और वह पंजाब के प्रांत में 'अमरितसर' शहर है, जो विभाजन के बाद भारत की भूमि में आ गया था।
ख- अमरितसर शहर में उनकी सबसे बड़ी मंदिर है जिसकी वे तीर्थ यात्रा करते हैं, जिसे “दरबार साहब” कहा जाता है, जबकि अन्य मंदिरों को “गुरूद्वारा” कहा जाता है।
ग- सिखों की अधिकांश संख्या - जबकि वे इस्लाम और ईसाई धर्म के बाद तीसरे अल्पसंख्यक हैं - “पंजाब” में रहती है, क्योंकि उसमें उनके 85 प्रतिशत लोग रहते हैं, जबकि बाकी लोगों को आप हरियाणा, दिल्ली और भारत के विभिन्न क्षेत्रों में पायेंगे, जबकि उन में से कुछ मलेशिया, सिंगापुर, पूर्वी अफ्रीक़ा, इंग्लैंड, संयुक्त राज्य अमेरिका और कनाडा में निवास ग्रहण कर लिए हैं, तथा कुछ लोग कार्य करने के उद्देश्य से अरब के खाड़ी देशों में चले गए हैं।
घ- वर्तमान समय में सिखों की संख्या भारत और उसके बाहर लगभग एक करोड़ 50 लाख अनुमानित की जाती है।
छठा :
ऊपर जो कुछ उल्लेख किया गया है उससे स्पष्ट होता है कि यह एक बुतपरस्त नास्तिक धर्म है, और उसके अपने शुरूआती समय में इस्लाम से प्रभावित होने से उसकी गणना इस्लाम में नहीं की जा सकती, तथा इस उत्तर के शुरू में उल्लिखित उनका आदर्श वाक्य “न हिंदू हैं न मुसलमान” इसकी पुष्टि करता है, जबकि उनकी इस्लाम से कट्टर दुश्मनी, मुसलमानों की हत्या और उन्हें उनके धार्मिक प्रतीकों और अनुष्ठानों को स्थापित करने से रोकना इसके अतिरिक्त है, तथा बुतपरस्ती (मूर्तिपूजा) इस धर्म में स्पष्ट और जगजाहिर है। तथा किसी एक मुसलमान के बारे में भी यह नहीं जाना जाता है कि वह उनकी गणना इस्लाम में करता है।
तथा उनके यहाँ कोई एक सिरजनहार नहीं है जिसकी वे एकमात्र पूजा करते हों जिसका कोई साझी नहीं है, जैसा कि इस्लाम धर्म में है। और उनके संस्थापक का इस्लाम धर्म से प्रभावित होना उन्हें मुसलमान नहीं बना देगा, तथा उनका एक ही सृष्टा होने की बात कहना उन्हें एकेश्वरवादी (मुवह्हिद) नहीं बना देगा, क्योंकि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के ज़माने में मुशरिकीन (बहुदेववादी) यह अक़ीदा रखते थे कि ब्रह्मांड का एक ही सृष्टा है और वह सर्वशक्तिमान पालनहार है, बल्कि वे इस से भी अधिक यह अक़ीदा रखते थे कि वही आसमान से पानी बरसाता है, वही ज़िंदा को मुर्दा से निकालता है, और वही सूरज और चाँद को अधिकार अधीन (क़ाबू में) करता है इत्यादि, लेकिन इस चीज़ ने उन्हें एकेश्वरवादी और मुसलमान नहीं बनाया, क्योंकि उन्हों ने अपनी पूजा और उपासना को अल्लाह सर्वशक्तिमान के अलावा के लिए किया, इसीलिए विद्वान (उलमा), सिखों की गणना बुतपरस्त काफिरों में करने पर एकमत हैं।
1- “अल-मौसूअतुल मुयस्सरह फिल-अदयान” (धर्मों के बारे में आसान विश्वकोष) में आया है :
पिछली बातों से स्पष्ट होता है कि :
सिखों का अक़ीदा धार्मिक सुधार आंदोलनों में से एक है जो इस्लाम से प्रभावित हुआ और अक़ीदों (आस्थाओं) के बीच सामंजस्य पैदा करने की कोशिशों के अंतर्गत सम्मिलित हो गया, लेकिन वह रास्ता भटक गया, क्योंकि वह इस्लाम को पर्याप्त रूप से नहीं पहचान सका, और इसलिए भी कि धर्मों को आसमान से वह्य लेकर उतरती है, तथा मानव के लिए यह संघर्ष करने की गुंजाइश नहीं है कि वह स्वतः गढ़ कर और जोड़ मिलाकर यहाँ और वहाँ से अ़कीदा के तत्वों का चयन करे।
2- तथा इफ्ता की स्थायी समिति के विद्वानों से प्रश्न किया गया :
वे काफिर जो हमारे साथ कंपनियों में काम करते हैं, जैसे- सिख, हिन्दू और ईसाइ, उनके लिए क्या हैॽ और उनके प्रति हमारे ऊपर क्या अनिवार्य है ॽ तथा उनकी दोस्ती और वफादारी में पड़े बिना उनके साथ हमारा व्यवहार करना कैसे संभव है ॽ
तो उन्हों ने उत्तर दिया :
“आप उन्हें इस्लाम की ओर आमंत्रित करेंगे, उन्हें भलाई का आदेश करेंगे, बुराई से रोकेंगे, उनकी अच्छाई का बदला अच्छाई से देंगे, तथा भलाई के द्वारा उन्हें इस्लाम की ओर आकर्षित करेंगे, जबकि जिस कुफ्र (नास्तिकता) और पथभ्रष्टता पर ये लोग कायम हैं उससे घृणा रखेंगे।” अंत हुआ।
शैख अब्दुल अज़ीज़ बिन बाज़, शैख अब्दुर्रज़्ज़ाक़ अफीफी, शैख अब्दुल्लाह बिन गुदैयान।
“फतावा स्थायी समिति” (2/66)
3- तथा शैख अब्दुल अज़ीज़ बिन बाज़ रहिमहुल्लाह से प्रश्न किया गया :
टेलीवीज़न ने 4 सफर, 1403 हिजरी, जुमा की शाम को “प्राकृतिक दुनिया” नामक कार्यक्रम प्रस्तुत किया, जिसे इब्राहीम राशिद पेश करते हैं, यह कड़ी “भारत” के बारे में थी, उन्हों ने अपने परिचय के शुरू में कहा : वास्तव में भारत को धर्मों का देश कहा जाता है, हम उसमें हिंदू धर्म, बौद्ध धर्म, सिख धर्म ... पाते हैं।
अतः आप से अनुरोध है कि निम्न चीज़ों को स्पष्ट करें :
क्या वे धर्म जिन्हें कार्यक्रम प्रस्तुत कर्ता ने उल्लेख किया है, वास्तव में धर्म हैं जैसाकि उसका दावा है ॽ और क्या वे अल्लाह की ओर से अवतरित और भेजे हुए हैं ॽ
तो उन्हों ने उत्तर दिया :
“हर वह चीज़ जिसकी लोग ताबेदारी करते और उसके द्वारा उपासना व आराधना करते हैं उसे धर्म कहा जाता है, चाहे वह असत्य (धर्म) ही क्यों न हो, जैसे- बौद्ध धर्म, बुतपरस्ती, यहूदी धर्म, हिंदू धर्म, ईसाई धर्म और इनके अलावा अन्य असत्य धर्म। अल्लाह सर्वशक्तिमान ने सूरतुल काफिरून में फरमाया :
﴿لَكُمْ دِينُكُمْ وَلِيَ دِينِ﴾ [الكافرون : 6].
“तुम्हारे लिए तुम्हारा धर्म है और मेरे लिए मेरा धर्म है।” (सूरतुल काफिरूनः 6)
इस आयत में अल्लाह ने बुतपरस्त लोग जिस पर क़ायम हैं उसे धर्म कहा है, और सत्य धर्म केवल इस्लाम है, जैसाकि अल्लाह सर्वशक्तिमान ने फरमाया :
﴿إِنَّ الدِّينَ عِنْدَ اللَّهِ الْإِسْلَامُ ﴾ [سورة آل عمران : 19]
“निःसन्देह अल्लाह के निकट धर्म इस्लाम ही है।” (सूरत-आल इम्रानः19)
तथा फरमाया :
﴿ وَمَنْ يَبْتَغِ غَيْرَ الْإِسْلَامِ دِينًا فَلَنْ يُقْبَلَ مِنْهُ وَهُوَ فِي الْآخِرَةِ مِنَ الْخَاسِرِينَ ﴾ [سورة آل عمران : 85]
“और जो व्यक्ति इस्लाम के सिवा कोई अन्य धर्म ढूंढ़ेगा, तो वह (धर्म) उस से स्वीकार नहीं किया जायेगा, और आखिरत में वह घाटा उठाने वालों में से होगा।” (सूरत आल-इम्रान : 85)
तथा फरमाया :
﴿الْيَوْمَ أَكْمَلْتُ لَكُمْ دِينَكُمْ وَأَتْمَمْتُ عَلَيْكُمْ نِعْمَتِي وَرَضِيتُ لَكُمُ الْإِسْلَامَ دِينًا ﴾ [سورة المائدة : 3]
“आज मैं ने तुम्हारे लिए तुम्हारे धर्म को पूरा कर दिया और तुम पर अपनी नेमतें सम्पूर्ण कर दीं और इस्लाम को तुम्हारे लिए धर्म स्वरूप पसन्द कर लिया।” (सूरतुल मायदा : 3)
इस्लाम : अल्लाह के अलावा हर चीज़ को छोड़कर अकेले उसी की इबादत करना, उसके आदेश का पालन करना, उसकी निषिद्ध की हुई चीज़ों को छोड़ देना, उसकी सीमाओं के पास रूक जाना, तथा हर उस चीज़ पर ईमान रखना जिसकी अल्लाह और उसके पैगंबर ने हो चुकी और होने वाली चीज़ों में से सूचना दी है। बातिल और असत्य धर्मों में से कोई भी चीज़ अल्लाह की ओर से अवतरित नहीं है, और न ही उसके निकट पसंदीदा है, बल्कि वे सब के सब अविष्कारित हैं, अल्लाह की ओर से अवतरित नहीं हैं। और इस्लाम ही सभी पैगंबरों का धर्म है, केवल उनके धर्म-शास्त्र विभिन्न थे, जैसाकि अल्लाह सर्वशक्तिमान का फरमान है :
﴿لِكُلٍّ جَعَلْنَا مِنْكُمْ شِرْعَةً وَمِنْهَاجًا﴾ [ سورة المائدة : 48]
“तुम में से प्रत्येक के लिए हम ने एक धर्म-शास्त्र और मार्ग निर्धारित कर दिया है।” (सूरतुल मायदा : 48) अंत हुआ।
“फतावा शैख इब्ने बाज़” (4/321).
देखिए : “मौसूअतुल अद्यान वल मज़ाहिब अल मुआसिरह” (2/774 - 780).