सृष्टि के लिए कोई न कोई निर्माता होना ज़रूर | जानने अल्लाह

सृष्टि के लिए कोई न कोई निर्माता होना ज़रूर


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झुटलानेवालों और न माननेवाले लोगों के विरोध में शुभ क़ुरआन ने ऐसे ऐसे प्रमाण दिए हैं कि बुद्धि अन्तरात्मा के सामने उन्हें न मानने का कोई रास्ता नहीं रहता है lबल्कि शुद्ध बुद्धि उनके इनकार की अनुमति नहीं दे सकती हैl अल्लाह सर्वशक्तिमान फ़रमाता है:

)أم خلقوا من غير شيءٍ أم هم الخالقون – أم خلقوا السماوات والأرض بل لا يوقنون ) [ الطور : 35-36[

(या वे बिना किसी चीज़ के पैदा हो गए? या वे स्वयं ही अपने स्रष्टाँ हैं?या उन्होंने आकाशों और धरती को पैदा किया?) [अत-तूर: ३५-३६]मतलब: यह है कि इस में तो कोई संदेह नहीं हैं कि आप मौजूद हैं क्योंकि यह एक स्प्ष्ट तथ्य है जिस से आपको कोई इनकार नहीं है lइसी प्रकार आकाश और पृथ्वी भी मौजूद हैं इसमें कोई संदेह नहीं है l
मन और बुद्धि का फैसला यही है कि हर अस्तित्व के लिए कोई न कोई कारण होना ज़रूरी है lयह बात तो रेगिस्तान में ऊंट चरानेवाले को भी ज्ञात है कि कोई चीज़ बिना कारण नहीं हो सकती है बल्कि वे तो इस तथ्य को अच्छी तरह समझते हैं  lजैसा कि उनमें से एक ने कहा :

" البعرة تدلّ على البعير ، والأثر يدلّ على المسير ، فسماء ذات أبراج وأرض ذات فجاج ، ألا تدل على العليم الخبير"

"ऊंट की मेंगनी से ऊंट का संकेत मिलता हैऔर पैर के चिन्हों से चलने का संकेत मिलता है, तो क्या सितारोंवाला आकाश और खुली खुली भूमिवाली धरती सर्वज्ञऔरअत्यन्त तत्वदर्शी का संकेत नहीं देते हैं ?) इसी प्रकार इस तथ्य को वरिष्ठ वैज्ञानिकों और शोधकर्ताओं ने भी समझा है और अच्छी तरह इसका ग्रहण कियाl
शुभ क़ुरआन ने यहाँ जिस प्रमाण की ओर इशारा किया उसी को वैज्ञानिक कार्यकारण के सिद्धांत का कहते हैं, इस सिद्धांतका कहना है कि कोई भी संभव  चीज़ स्वयं ही नहीं हो सकती है, क्योंकि यह अपने आप में अपने अस्तित्व के लिए पर्याप्त कारण नहीं रखती है और किसी भी चीज़ को अपने आप पैदा भी नहीं कर सकती है क्योंकि जो चीज़ ख़ुद के पास नह हो तो वह यह चीज़ अन्य को कैसे दे सकता है l 

इस सिद्धांतकी व्याख्या के लिए एक उदाहरण देते हैं
 कुछ साल पहले रुब अल-ख़ाली(
अरबी: الربع الخالي, अंग्रेज़ी: Rub' al-Khali), जिसका मतलब 'ख़ाली क्षेत्र' होता है, दुनिया का सबसे बड़ा रेत कारेगिस्तानहै (अधिकतर रेगिस्तानों में रेत, पत्थरों और पहाड़ों का मिश्रण होता है।अरबी प्रायद्वीपका दक्षिणी एक-तिहाई इलाक़ा इसमें आता है, उस में रेत के तूफान के बाद रेत में दफन एक क्षेत्र सामने आया जो रेत के तोदों में छिपा हुआ थाlवैज्ञानिकों ने उसके भीतर की चीज़ों और सामानों में देखना और जांच करना शुरू किया और यह पता लगाने की कोशिश करने लगे कि यह किस युग में बनाया गया था, कब यह आबादी याहां बसी थी lयाद रहे कि वे लोग तुरंत उसके बनाने वालों के बारें में खोज करने लगे उन पुरातत्वविदों या दूसरों को यह बिल्कुल ख़याल नहीं हुआ कि यह शहर अपने आप हवा और बारिश , गर्मी और सर्दी की प्राकृतिक कारणों से बन गया होगा किसी मनुष्य ने इसे नहीं बनाया होगा ऐसा किसी को भी ख़याल नहीं हुआ। और अगर कोई व्यक्ति ऐसा कहा भी होता तो लोग तो उसे बेचारा मूर्ख ही समझते। अब आप यह बताइये कि यदि कोई व्यक्ति यह कहे कि यह शहर बहुत पहले समय में बिना किसी कारण के हवा में बन गया था उसके बाद धरती पर उतर गया और यहाँ उतर कर बैठ गया ?वास्तव में यह दृश्य पूर्ववर्ती बात की तुलना में ज़ियादा आश्चर्य की बात हैl इसे कोई स्वीकार नहीं कर सकता।क्योंकि अर्नास्तत्व किसी भी चीज़ को पैदा नहीं कर सकता lऔर यह तथ्य तो मनुष्य की सृष्टि और प्रकृति बल्कि उसकी अन्तरात्मा में बैठा हुआ है कि कोई भी चीज़ अपने आप पैदा नहीं हो सकती है ।इसलिए उस शहर के लिए अवश्य कोई न कोई बनानेवाला है और यह शहर किसी न किसी कार्य कार्यकर्ता का पता देता है lयह इमारतें अपने बनानेवालों का परिचय दे रही हैं lअतः वह शहर साफ़ संकेत दे रहा है कि वह किसी बुद्धिमान जाति का निर्माण है जो निर्माण के सिद्धांत को अच्छी तरह जानते थे ।

यदि हम किसी आदमी को देखें कि वह एक इमारत पर नीचे से ऊपर चढ़ गया तो इस में कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है क्योंकि उस आदमी में इसकी शक्ति है, वह चढ़ भी सकता है और उतर भी सकता है lलेकिन यदि हम उस इमारत के आंगन में किसी पत्थर को देखें कि पहले तो नीचे था उसके बाद ऊपर छत पर पड़ा है तो हम निश्चित रहेंगे कि वह खुद ऊपर नहीं गया है बल्कि किसी ने उसे स्थानांतरित किया और वहाँ तक पहुंचाया क्योंकि पत्थर में कोई हिलने और डोलने या चढ़ने कि शक्ति नहीं है।

यह अजीब बात है कि लोगों को तो यह विश्वास है कि एक शहर ख़ुद से मौजूद नहीं हो सकता है और न वह ख़ुद अपने को निर्माणित कर सकता है, इसी प्रकार वे विश्वास रखते हैं कि पत्थर के शीर्ष पर चढ़ानेवाला कोई न कोई कोई होना आवश्यक है इसके बाद भी लोगों के बीच ऐसे लोग पाए जाते हैं जो यह कह देते हैं कि ब्रह्मांड बिना किसी निर्माता के ख़ुद से बन गया है lउसका कोई बनाने वाला नहीं है जबकि ब्रह्मांड का निर्माण तो अधिक जटिल है बल्कि सबसे बड़ी रचना है(निस्संदेह आकाशों और पृथ्वी का निर्माण तो मानवता के सृजन की तुलना में अधिक बड़ा है) [ग़ाफिर:५७)
लेकिन जब वे ऐसे वैज्ञानिक प्रमाण द्वारा संबोधित किये जाते हैं जो बुद्धि और मन को छू लेते हैं तो उनके सामने दो ही रास्ता बचता है या तो वे मानें या हटधर्मी करें।
इस्लाम के विद्वानों ने इस प्रमाण द्वारा सदा कठहुज्जाती करनेवालों और तर्क-कुतर्क करने वालों की बोलती बंद की : एक विद्वान एक नास्तिकसे बात कर रहे थे जो अल्लाह के अस्तित्व को नहीं मानता था lउन्होंने उस से कहा : यह बताओ एक ऐसे आदमी के विषय में क्या कहते हो जिसका दावा यह है कि: मैंने देखा है कि एक जहाज जो बहुत सारे सामन से भरा था और उसमें बहुत माल व दौलत लादे थे lवह समुद्र में चल रहा था lकुछ समय बादसमुद्र के थपेड़ों ने उसे आ घेरा और बहुत हवाओं का जोर शुरू हुआ लेकिन यह जहाज़ उन सब के बीच से आराम से चल कर आगे निकल गया, लेकिन उस जहाज़ में न कोई नाविक है और न कोई देखभाल करनेवाला lक्या आपके ख़याल में ऐसा हो सकता है? तो उस नास्तिक ने कहा : यह तो होने वाली बात नहीं है lऐसा कैसे हो सकता है ? इस  पर उस विद्वान ने कहा, वाह वाह क्या बात है, जब आपके ख़याल के अनुसार समुद्र में एक नाव बिना चलानेवाले और नाविक के नहीं चल सकती है तो फिर इतनी बड़ी दुनिया बिना किसी बनानेवाले और पालनहार के कैसे चल सकती है जबकि इस दुनिया में अलग अलग परिस्थितियां हैं, उसमें अलग अलग कार्य हैं, उसके ओर छोर का पता नहीं है, इतनी बड़ी और फैली हुई है कि मनुष्य उसका ग्रहण नहीं कर सकता है यह कैसे बिना निर्माता और बिना देख रेख के चल सकती है । यह सुनकर वह रो पड़ा और अपनी नास्तिकता से तौबा कर लिया और मुसलमान हो गया ।   
यहसिद्धांत जिसे मन द्वारा मान्यता प्राप्त है और मानवीय बुद्धि उसे स्वीकार करती है lइसका संकेत शुभ क़ुरआन की इस आयत में दिया गया है:

)أم خلقوا من غير شيءٍ أم هم الخالقون – أم خلقوا السماوات والأرض بل لا يوقنون ) [ الطور : 35-36[

(या वे बिना किसी चीज़ के पैदा हो गए? या वे स्वयं ही अपने स्रष्टाँ हैं?या उन्होंने आकाशों और धरती को पैदा किया?) [अत-तूर: ३५-३६]यह एक ऐसा प्रमाण है जो एक बुद्धिमान को यह मानने पर मजबूर करता है कि अवश्य इस दुनिया के लिए एक पूजनीय निर्माता हैlयह आयत एक सुवक्ता और प्रभावशाली रूप में ढाला गया है जिसकी आवाज़ कान में पड़ते ही आत्मा को झंझोड़ कर रख देती है ।

बुखारी ने अपनी सहीह नामक पुस्तक में उल्लेख किआ है, जुबैर बिन मुतइम का कहना है कि : मैंने अल्लाह के पैगंबर -उन पर इश्वर की कृपा और सलाम हो- को मग़रिब की नमाज़ में सूरा अत-तूर को पढ़ते सुना, जब वह इस आयत पर पहुंचे:

)أم خلقوا من غير شيءٍ أم هم الخالقون – أم خلقوا السماوات والأرض بل لا يوقنون – أم عندهم خزائِن ربك أم هم المصيطرون ) [ الطور : 35-37[

(या वे बिना किसी चीज़ के पैदा हो गए? या वे स्वयं ही अपने स्रष्टाँ हैं?या उन्होंने आकाशों और धरती को पैदा किया?बल्कि वे विश्वाश नहीं करते, या उनके पास तुम्हारे रब के खज़ाने हैं? या वही उनके परिरक्षक हैं?)

तो मेरा दिल उड़ने के जैसा हुआ । बैहक़ी कहते हैं : अबू सुलेमान अल-खात्ताबी ने कहा: "इस आयत को सुनते समय उनको ऐसा इसलिए लगा था क्योंकि उन्होंने इस शुभ आयत के अर्थ को बहुत अच्छी तरह समझा था और उसके उद्देश्य का अच्छी तरह ग्रहण किआ था lउन्होंने इसमें जो शानदार प्रमाण है उसे अच्छी तरह मन में बैठाया था बल्कि उनहोंने उसके अर्थ को अपने बारीकी को समझने वाले दिमाग से देखा था और उसके उद्देश्य को अपने तेज़ बुद्धि से पा लिया था इसलिए उनको ऐसा अनुभव हुआ था ।
 खात्ताबी आगे कहते हैं यदि :

)أم خلقوا من غير شيءٍ(

 

(या वे बिना किसी चीज़ के पैदा हो गए?)को मान कर चलें तो मतलब यह होगा कि वे बिना किसी सृष्टा के बन गए और यह बात तो असंभव है क्योंकि सृष्टि का सृष्टा से संबंध होना ज़रूरी है इसलिए सृष्टि के लिए सृष्टा का होना ज़रूरी हुआ और जब वे पूजनीय सृष्टा के अस्तित्व का इनकार कए और कोई निर्माण बिना निर्माता के नहीं होता है तो क्या वे खुद अपने आपको बनाए हैं ? और यह बात तो मूर्खता में और दो हाथ आगे है इसलिए यह बात तो कभी नहीं मानी जा सकती है, क्योंकि जिसे खुद अपना अस्तित्व ही नहीं है तो उसमें शक्ति कहाँ से आ सकती है और वह कैसे पैदा कर सकता है? और कोई कार्य वह कैसे कर सकता है? और जब यह दोनों विकल्प असंभव ठहरे तो फिर दावा साबित हो गया कि उनका कोई न कोई सृष्टा है जिस पर ईमान लाना ज़रूरी है । उसके बाद अल्लाह सर्वशक्तिमान ने फरमाया :

)أم خلقوا السماوات والأرض بل لا يوقنون(

(या उन्होंने आकाशों और धरती को पैदा किया?बल्कि वे विश्वाश नहीं करते,) और इस बात का दावा तो वे कभी कर नहीं सकते इसलिए बात उनकी ओर से खत्म हो गई और प्रमाण पूरा हो गया।

खात्ताबी ने जो यह उल्लेख किया है कि वे इस बात का दावा नहीं कर सकते इस बात को उल्लेख करने का लाभ यह है कि कठुज्जाती और तर्क का दरवाज़ा बंद कर दिया जाए क्योंकि हो सकता है कोई आस्तिक और बहस बढाने वाला यह कह बैठे कि “मैंने खुद अपने आप को पैदा किया”जैसा कि हज़रत इबराहीम –सलाम हो उनपर- के साथ बहस और तकरार करनेवाले ने कहा था कि“वह मार भी सकता है और जिला भी सकता है”और एक क़ैदी को मारने का आदेश दिया और दूसरे को जिंदा छोड़ने का आदेश दिया जैसा कि पूरी कहानी सूरा बक़रा की आयत नंबर २५८ में उल्लेख किया गया है lलेकिन जब हज़रत इबराहीम –सलाम हो उनपर- ने उससे यह प्रश्न किया कि “निस्संदेह अल्लाह तो सूर्य को पूरब से उगाता है और पश्चिम से उसे लाता है”जैसा कि सूरा बक़रा की आयत नंबर २५८ में आया है तो परिणाम यह हुआ कि “इनकार करनेवाला हक्का-बक्का रह गया और अल्लाह तो अत्यचारियों को मार्ग नहीं देता है l”(सूरा बक़रा:२५८) यहाँ भी उसी प्रकार मान लीजिये कि कोई आदमी यह कह दे कि “मैंने खुद अपने आपको पैदा किया”तो प्रश्न यह है : क्या वह यह दावा कर सकता है कि उसने आकाशों और पृथ्वी को बनाया है?  
क्योंकि जो खुद मौजूद नहीं है वह आकाश और पृथ्वी को कैसे पैदा कर सकता है? और जब आकाश और पृथ्वी खुद अपने आप को पैदा नहीं कर सकते और जब वे खुद यह दावा नहीं कर सकते कि उन्होंने इन चीजों को पैदा किया तो यह बात मानना ज़रूरी हो गया कि उसके लिए कोई न कोई सृष्टा है और यह सृष्टा को ही अल्लाह कहा जाता है।
प्रायोगिक विज्ञान में इस सिद्धांत की स्थिति:
मनुष्य की शक्ति और सृष्टि की प्रकृति इस बात से असमर्थ है कि एक बाद एक कारणों के सिलसिले को आखिर तक गिन सके या उसके शृंखला को एक एक करके पूरा पूरा ग्रहण करके दुनिया की शुरुआत को ज्ञात कर सके lइसलिए प्रायोगिक विज्ञान वस्तुओं के मूल को मालूम करने से निराश हो गए और इस प्रयास को त्याग देने की घोषणा कर दी lहुआ यही कि इस उद्देश्य को छोड़ कर पीछे लौट गए और उसके पीछे की दुनिया को अदृश्य और अज्ञात दुनिया की सिरीज़ में शामिल कर दिया जिसको न जानने में वैज्ञानिकों और अज्ञानी के बीच कोई अंतर नहीं है ।

 

बुद्धि के सामने मानने के सिवा कोई रास्ता नहीं है
ब्रह्माण्ड के अतीत और भविष्य और उसके बनने के चरणों और मरहलों को जानने से इस मानवीय निराशा के साथ साथ, मनुष्य की बुद्धि और अन्तरात्मा में -चाहे माने या न माने-एक प्रकार का विश्वाश भी पाया जाता है कि संभव कारणों की जंजीर कितनी भी लंबी हो, और चाहे वे सीमीत हों या असीमित हों, कुछ भी हो ब्रह्माण्ड की व्याख्या के लिए और उसे समझने के लिए और उसके अस्तित्व को बुद्धि सम्पन्न करने के लिए एक ऐसे कारण को मानना अवश्य है जो सब कारणों का कारण है और जिसका अस्तित्व अपने आप से है वही सब से पहला कारण है जिससे पहले कोई चीज़ नहीं है lयदि ऐसा अस्तित्व न माना जाए तो सारी संभव चीजें अंधेरी कोठरी में ही पड़ी रहेंगी । 

 

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(१) सहीहबुखारी: ८/६०३, और संख्या: ४८५४ ।
(२)अल-अस्मा वस-सिफात, बैहक़ी द्वारा: १/३९१।

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