हज्ज अनिवार्य हुक़ूक़ जैसे कफफारात और क़र्ज़ को समाप्त नहीं करता है।
प्रश्न: अल्हमदुलिल्लाह पिछले वर्ष मुझे हज्ज के कर्तव्य को पूरा करने का अवसर मिला, और जैसाकि आप जानते हैं कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने हदीस में फरमाया है कि ‘‘हज्ज मबरूर का बदला तो जन्नत ही है।'' और जब मुसलमान हज्ज का फरीज़ा अदा करता है तो उसका हर गुनाह क्षमा कर दिया जाता है और वह अपने हज्ज से उस दिन के समान होकर लौटता है जिस दिन उसकी माँ ने उसे जन्म दिया था और वह फित्रत पर लौट आता है। मेरा प्रश्न यह है कि : मेरे ऊपर पिछले दो सालों से रमज़ान के कुछ दिन रह गए हैं जिनके रोज़ों की मैंने क़ज़ा नहीं की है, तो क्या मेरे हज्ज करने के बाद भी मुझे उन दिनों के रोज़ों की क़ज़ा करने की ज़रूरत है? या कि मैंने जो हज्ज किया है उसकी वजह से अल्लाह मेरी पिछली चीज़ों को क्षमा प्रदान कर देगा? अल्लाह आपको अच्छा बदला दे।
हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह के लिए योग्य है।
हज्ज की फज़ीलत में बहुत सारी हदीसें वर्णित हैं, जो इस बात को दर्शाती हैं कि वह गुनाहों को मिटा देता है, और बुराईयों का कफ्फारा (परायश्चित) बना देता है और इन्सान उससे उस दिन की तरह लौटता है जिस दिन उसकी माँ ने उसे जन्म दिया था।
लेकिन इस सवाब और प्रतिष्ठा का अर्थ यह नहीं होता है कि अनिवार्य हुक़ूक़ समाप्त हो जाते हैं, चाहे वे अल्लाह तआला के हुक़ूक़ हों, जैसे कफ्फारात और नज़्र (मन्नत), तथा इन्सान के ज़िम्में में अनिवार्य ज़कात जिसका उसने भुगतान नहीं किया है, या रोज़े जिनकी उसके ऊपर क़ज़ा अनिवार्य है, या बन्दों के ह़ुक़ूक़ हों जैसे क़र्ज़ इत्यादि। सो हज्ज गुनाहों को क्षमा करता है, और विद्वानों की सहमति के साथ इन हुक़ूक़ को समाप्त नहीं करता है।
अतः जिसने उदाहरण के तौर पर अपने ऊपर अनिवार्य रमज़ान के दिनों की क़ज़ा को विलंब कर दिया, और यह बिना किसी उज़्र (कारण) के था, फिर उसने मबरूर हज्ज किया, तो उसका हज्ज उससे विलंब के पाप को समाप्त कर देगा, और दिनों की कज़ा को समाप्त नहीं करेगा।
''कश्शाफुल क़िनाअ'' (2/522) में कथित है : ''और दुमैरी ने कहा : सहीह हदीस में है : ''जिसने हज्ज किया और (उसके दौरान) अश्लीलता से उपेक्षा किया और अवज्ञा व पाप नहीं किया तो वह अपने गुनाहों से उस दिन की तरह लौटता है जिस दिन उसकी माँ ने उसे जना था।'' तो यह खासकर अल्लाह तआला के हुक़ूक़ से संबंधित गुनाहों के साथ विशिष्ट है, बन्दों के हुक़ूक से संबंधित नहीं है, और न ही यह स्वयं हुक़ूक़ को ही समाप्त कर सकता है, चुनाँचे जिसके ऊपर नमाज़ या कफ्फारा और ऐसे ही अल्लाह के अन्य अधिकार हैं तो वे समाप्त नहीं होंगे ; क्योंकि वे हुक़ूक़ (अधिकार) हैं, पाप और गुनाह नहीं हैं, गुनाह उनको विलंब करना है, तो विलंब का गुनाह हज्ज से समाप्त हो जायेगा, स्वयं हुक़ूक़ समाप्त नहीं होंगे। इसलिए यदि उसने उसके बाद भी विलंब कर दिया तो एक नया गुनाह चढ़ जायेगा। सो हज्ज मबरूर केवल अवहेलना के पाप को समाप्त करता है, हुकूक़ू को नहीं।'' यह बात मवाहिब ने कही है।'' अंत हुआ।
इब्ने नुजैम रहिमहुल्लाह ने ''अल-बह्रुर-राइक़'' (2/364) में हज्ज के कबीरा गुनाह को मिटाने के बारे में मतभेद का उल्लेख करने के बाद फरमाया : ''सारांश यह कि : यह मुद्दा गुमान पर आधारित है, और यह कि हज्ज के बारे में निश्चित रूप से यह नहीं कहा जा सकता है कि वह अल्लाह के हुक़ूक़ में से बड़े गुनाहों को मिटा देगा, बन्दों के हुक़ूक़ की बात तो बहुत दूर है। और यदि हम सभी चीज़ों के कफ्फारा होने की बात कहें तो उसका अर्थ वह नहीं है जैसाकि बहुत से लोग गुमान करते हैं कि उससे क़र्ज़ समाप्त हो जायेगा, इसी तरह नमाज़ें, रोज़े और ज़कात भी समाप्त हो जायेगा ; क्योंकि इस तरह की बात किसी ने नहीं कही है। बल्कि इसका मतलब यह है कि क़र्ज के भुगतान में टालमटोल करने और उसे विलंब करने का गुनाह समाप्त हो जायेगा, और अरफा में ठहरने के बाद अगर उसने फिर टालमटोल किया तो तो अब वह गुनाहगार होगा। इसी तरह नमाज़ को उसके समय से विलंब करने का गुनाह हज्ज करने से समाप्त हो जायेगा, उसकी क़ज़ा करना नहीं, फिर अरफा में ठहरने के बाद उससे क़ज़ा करने का मुतालबा किया जायेगा। यदि उसने ऐसा नहीं किया तो उसके तुरंत अनिवार्य होने के कथन के आधार पर वह गुनाहगार होगा। इसी तरह बाक़ी चीज़ों को भी इसी पर क़ियास कर लीजिए। सारांश यह कि किसी ने भी हज्ज के बारे में वर्णित हदीसों के सामान्य होने की बात नहीं कही है, जैसा कि यह बात गुप्त नहीं है।'' अंत हुआ।
सारांश यह कि : आपके ऊपर रमज़ान के जो दिन रह गए हैं, आप के लिए उनकी क़ज़ा करना ज़रूरी है, और इसके बिना आपकी ज़िम्मेदारी समाप्त नहीं होगी।
और अल्लाह तआला ही सबसे अधिक ज्ञान रखता है।