अल्लाह को गाली देनेवाले के कुफ्र पर विद्वानों की सर्वसहमति | जानने अल्लाह

अल्लाह को गाली देनेवाले के कुफ्र पर विद्वानों की सर्वसहमति


अब्दुल अज़ीज़ बिन मरज़ूक़ अत्तरीफ़ी

प्रति मत के विद्वान, जिनका यह कहना है कि र्इमान कथनी व करनी का नाम है, इस बात पर एकमत हैं कि अल्लाह को गाली देना कुफ्र है, तथा प्रत्येक गाली या स्पष्ट अवमान (त्रुटिरोपण) में अल्लाह को गाली देनेवाले के उज़्र व बहाने का, उन सबकी सर्वसहमति के साथ, कोर्इ ऐतिबार व मान्य नहीं है।

हर्ब ने अपने ‘‘मसाइल’’ में मुजाहिद के माध्यम से उमर रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत किया है कि उन्हों ने फरमाया : ‘‘जो व्यक्ति अल्लाह को गाली दे, या नबियों में से किसी नबी को गाली दे तो उसे क़त्ल कर दो।[1]’’

तथा लैस ने मुजाहिद के माध्यम से इब्ने अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हुमा से रिवायत किया है कि उन्हों ने फरमाया : ‘‘जिस मुसलमान ने भी अल्लाह को, या किसी नबी को गाली दिया, तो उसने अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को झुठलाया, और यह धर्म से फिर जाना है, उससे तौबा करवाया जायेगा, यदि वह इस्लाम की तरफ लौट आता है तो ठीक, अन्यथा उसे क़त्ल कर दिया जायेगा ! और जिस मुआहद (प्रतिज्ञा वाले) व्यक्ति ने हठ व दुश्मनी करते हुए अल्लाह को, या किसी नबी को गाली दिया, या उसका खुला प्रदर्शन किया, तो उसने प्रतिज्ञा को भंग कर दिया, अत: उसे क़त्ल कर दो।’’ [2]  

तथा इमाम अहमद से अल्लाह को गाली देनेवाले के बारे में पूछा गया ? तो उन्हों ने फरमाया : ‘‘यह मुर्तद (धर्म से फिर जानेवाला) है, उसकी गर्दन मार दी जायेगी।’’ जैसाकि उनसे उनके बेटे अब्दुल्लाह ने अपने ‘‘मसाइल’ [3] में रिवायत किया है।

तथा उसके कुफ्र पर और क़त्ल का अधिकारी होने पर, कर्इ एक ने विद्वानों की सर्वसहमति का उल्लेख किया है :

$ इब्ने राहवैह रहिमहुल्लाह ने फरमाया : ‘‘मुसलमानों की इस बात पर सर्वसहमति है कि जिसने अल्लाह को गाली दिया, या उसके रसलू को गाली दिया, या अल्लाह सर्वशक्तिमान ने जो कुछ अवतरित किया है उसमें से किसी चीज़ को ठुकरा दिया, या अल्लाह के नबियों में से किसी नबी को क़त्ल कर दिया, तो वह इसकी वजह से काफिर है, भले ही वह अल्लाह की अवतरित की हुई चीज़ों को स्वीकारने वाला हो।’ [4]  

$ क़ाज़ी अयाज़ रहिमहुल्लाह ने फरमाया : ‘‘इसमें कोर्इ संदेह नहीं कि मुसलमानों में से अल्लाह को गाली देनेवाला व्यक्ति काफिर है उसका खून वैध है।’ [5]

तथा इब्ने हज़्म वगैरा ने भी इज्मा (मुसलमानों की सर्वसहमति) का उल्लेख किया है, तथा इब्ने अबी ज़ैद अल-क़ैरवानी और इब्ने क़ुदामा इत्यादि जैसे इमामों ने उसके कुफ्र को स्पष्ट रूप से वर्णन किया है।[6]

इस तरह सभी विद्वान अल्लाह को गाली देनेवाले के कुफ्र को स्पष्ट रूप से वर्णन करते हैं, और उससे कोर्इ उज़्र (बहाना) स्वीकार नहीं करते हैं, क्योंकि कम से कम बुद्धि वाला व्यक्ति गाली और उसके अलावा में अंतर करता है, तथा प्रशंसा को निंदा से पहचानता है, लेकिन वे उस पर साहस करने में लापरवाही से काम लेते हैं !

तथा इब्ने अबी ज़ैद अल-क़ैरवानी अल-मालिकी से एक ऐसे आदमी के बारे में पूछा गया जिसने एक आदमी पर लानत किया और उसके साथ अल्लाह पर भी लानत किया, तो उस आदमी ने बहाना करते हुए कहा : मैं शैतान को लानत करना चाहता था तो मेरी ज़ुबान फिसल गर्इ !

तो इब्ने अबी ज़ैद ने उत्तर देते हुए फरमाया : ‘‘उसके ज़ाहिरी कुफ्र के कारण उसे क़त्ल कर दिया जायेगा, और उसका उज़्र स्वीकार नहीं किया जायेगा, चाहे वह मज़ाक़ करनेवाला हो या गंभीर मुद्रा में हो।’’ [7]

इस तरह फिक़्ह के सभी मतों - जैसे चारों मत और ज़ाहिरिया - के विद्वान और क़ाज़ीगण (न्यायाधीश) ज़ाहिर (प्रत्यक्ष) पर फैसिला करते और फत्वा देते हैं, और बातिन (प्रोक्ष) का एतिबार नहीं करते हैं, अगरचे गाली देने वाला यह गुमान करे कि उसके बातिन (दिल) में जो चीज़ है वह उसके अतिरिक्त है !

और यदि उलमा (विद्वान) ज़ाहिर की खुली मुख़ालफतों को ज़ाहिर के विपरीत बातिन के दावों की तरफ लौटाते, तो शरीयत की संगायें, अहकाम, दंड और सज़ाए समाप्त हो जातीं, और लोगों के अधिकार और मर्यादायें नष्ट हो जातीं, मुसलमान को काफिर से और मोमिन को मुनाफिक़ से अलग करना दुर्लभ हो जाता, और दीन व दुनिया बेवक़ूफों की ज़ुबानों पर, और दिल के रोगियों के हाथों में मज़ाक़ बन कर रह जाते।

[1] जैसा कि ‘‘अस्सारिमुल मसलूल’’ (पृष्ठ : 102) में है।

[2] ‘‘अस्सारिमुल मसलूल’’ (पृष्ठ : 201).

[3]  (पृष्ठः 431).

[4] ‘‘अत्-तमहीद’’ लिब्ने अब्दिल बर्र (4/226) और ‘‘अल-इस्तिज़कार’’ (2/150).

[5]  ''अश्शिफा'' (2/270).

[6]  ‘‘अल-मुहल्ला’’ लिब्ने हज़्म (11/411), ‘‘अल-मुग़नी’’ लिब्ने क़ुदामा (9/33), ‘‘अस्सारिमुल मसलूल’’ लिब्ने तैमियह (पृष्ठ 512), ‘‘अल-फुरूअ’’ लिब्ने मुफलेह (6/162), ‘‘अल-इनसाफ’’ लिल-मर्दावी (10/326) ‘‘अत्ताजो वल इकलील’’ लिल-मव्वाक़ (6/288).

[7] ‘‘अश्शिफा’’ लि-अयाज़ (2/271).

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